________________
336
महाकवि भूषरदास :
का प्रादुर्भाव एक अंश को ही पूर्ण मानने से हुआ है। वे किसी एक अंश को ग्रहण करने वाले जन्मान्ध पुरुषों के समान किसी एक अंश को सर्वांश मानकर परस्पर विरोध प्रगट करते हैं।'
वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक या अनेकधर्मात्मक होने के कारण प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाली अनेक गुण या धर्म होते हैं। उस विरोध को दूर करने वाली सापेक्ष कथन पद्धति ही है; जिसे स्याद्वाद कहते हैं। यह स्याद्वाद समस्त संशयों को दूर करने वाला निर्मल सत्य सुखरूप जिनशासन का परम चिह्न है।
याबाद शय में “या: 4 2ी आई समझना आवश्यक है, क्योंकि स्यात् पद तिड़न्त न होकर निपात है।' यह सन्देह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है । "कथंचिद् अर्थात् किसी अपेक्षा, बाद का अर्थ कहना या कथन करना, किसी अपेक्षा कथन करना ही स्याद्वाद है।
___ वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को समझाने वाली सापेक्ष कथन पद्धति को स्थाद्वाद कहते है। 5 अनेकान्त और स्याद्वाद में द्योत्य-योतक सम्बन्ध है । द्रव्य (वस्तु) को पूर्ण रूप से सात रूपों में कहा जाता है - स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य । इन सात रूपों को ही सप्तभंगी कहते हैं। इनका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है - स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति, 1. दरय अनेक नयातमक, एक एक नय साधि ।
भयो विविध मतभेद यों, अग में बड़ी उपाधि ॥ जन्म अन्ध गजरूप ज्यों, नहिं जानै सरबंग। त्यों जग में एकान्त मत, गहै एक ही अंग॥
पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 9 पृष्ठ 78 2. ता विरोध के हरन को,स्यादवाद जिनबैन ।
सब संशय मेटन विमल, सत्यारथ सुख चैन ।। पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 9 पृष्ठ 78 3. आत्मभीमांसा (देवागम स्तोत्र) समन्तभद्राचार्य श्लोक 103 4. स्याद शब्द को अर्थ जिन, कमो कथंचित जान। नागरूप नय विषहरन, यह जग मंत्र महान ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 9 पृष्ठ 78 5. अनेकान्तात्मकार्य कथन स्याद्वाद' लघीयस्वय टीका (अनेकान्त और स्याद्वाद) पृष्ठ 22