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________________ ... एक समालोचनात्मक अध्ययन परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति, एक ही साथ स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति नास्ति, जिस प्रकार वस्तु का स्वरूप है उस प्रकार सर्वथा ज्यों का त्यों न कहने की अपेक्षा अवक्तव्य, स्वचतुष्टय और सर्वथा न कहने की अपेक्षा अस्ति अवक्तव्य, परचतुष्टय और सर्वथा न कहने की अपेक्षा नास्ति अवक्तव्य, स्वचतुष्टय परचतुष्टय और सर्वथा न कहने की अपेक्षा अस्ति नास्ति अवक्तव्य ।' - उक्त सातरूपों को ही सप्तभंगी कहते हैं। मूल में तो दो ही भंग हैं। वक्तव्य और अवक्तव्य । उक्त सात भंगों में तीन भंग वक्तव्य के तथा चार भंग अवक्तव्य के हैं। अवक्तव्य का स्वतन्त्र मंग संभव होने के कारण उसके चार भंग हुए एवं वक्तव्य का स्वतन्त्र भंग संभव न होने के कारण उसके तीन भंग हुए। 337 इस सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका में लिखते हैं - " जो स्वरूप से, पर - रूप से और स्वरूप- पररूप से युगपत् सत्, असत् और अवक्तव्य है- ऐसे अनन्त धर्मों वाले द्रव्य के एक-एक धर्म का अश्रय लेकर विवक्षित अविवक्षित के विधि निषेध के द्वारा प्रगट होने वाली सप्तभंगी निरन्तर सम्यक्तया उच्चारित करने पर स्यात्कार रूप अमोघ मन्त्रपद के द्वारा एवकार में रहने वाले समस्त विरोध - विष के मोह को दूर करती है। इससे स्पष्ट है कि स्याद्वाद, वस्तु में विद्यमान विवक्षित गुणों को मुख्य करता हुआ अविवक्षित गुणों को गौण करता है, अभाव नहीं । " स्यात् ” पद के प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है । 1. अपने चतुष्ठे की अपेक्षा दर्व अस्ति रूप, पर की अपेक्षा वही नासति बखानिये । एक ही समै सो अस्ति नास्ति सुभाव घरै, ज्यों है त्यों न कहा जाय अवक्तव्य मानिये | अस्ति कहे नास्ति अभाव अस्ति अवक्तव्य, त्यों ही नास्ति कहें नास्ति अवक्तव्य जानिये । एक बार अस्ति नास्ति कह्यो जाय कैसे तातैं, अस्ति नास्ति अवक्तव्य ऐसे परवानिये ॥ पार्श्वपुराण, कलकता अधिकार 9 पृष्ठ 78 2. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र कृत गाथा 115 की तत्त्वदीपिका टीका
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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