________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
7
चरखा, पिंजरा, कोपल, सालाब, गर', कान्तार" आदि। इसके अतिरिक्त कवि द्वारा जिनेन्द्र देव की प्रतिमा एवं तीर्थंकर की संज्ञा का बोध कराने के लिए विविध चिह्नों का व्यवहार भी किया गया।
8
4. आत्मबोधक प्रतीक :- निराकार को आकार देने के लिए भूधरदास ने आत्मबोधक शब्दों का प्रयोग किया है, जो निम्नांकित है -
आत्मा हंस, मन सूवा
-
10
+
महाकवि भूधरदास की प्रतीक योजना के साधक उपमा, रूपक अतिश्योक्ति, सारोपा, साध्यावसाना लक्षणा रहे हैं। अन्य हिन्दी जैन कवियों की परम्परा की भाँति भूधरदास ने भी प्रतीकों का प्रयोग अधिकतर रूपक अलंकार के रूप में किया है; परन्तु कहीं कहीं प्रतीकों का प्रयोग अपने सहज रूप में मिलता है । कवि के प्रतीक जैन परम्परानुमोदित तो है ही, साथ ही लोक जीवन से भी लिये गये हैं। ठगिनी, नागिनि, हंस, चरखा जैसे प्रतीकों के प्रयोगों में निर्गुनिये सन्तों की छाप स्पष्टतः दिखाई देती हैं। कवि की प्रतीक योजना में स्वाभाविक बोधगम्यता दिखाई देती है। बोधगम्य प्रतीकों के कारण भावों एवं सूक्ष्म मनोवृत्तियों के उद्बोधन में कवि को पूर्ण सफलता मिली है। इसी प्रकार अप्रस्तुत भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त प्रतीकों द्वारा रसोद्बोधन एवं भावोद्बोधन में भी सफलता दृष्टिगत होती है ।
इस प्रकार भूधरसाहित्य में जैन परम्परानुमोदित सुखबोधक, दुःखबोधक, शरीरबोधक और आत्मबोधक प्रतीकों का प्रायः रूपक अलंकार की भाँति प्रयोग किया गया है।
1. हिन्दी पद संग्रह सं. डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल
2. भूधरविलास पद 27
4. पार्श्वपुराण पृष्ठ 48
6. भूधरविलास पद 21
8. जैनशतक छन्द 81
11. मेरे मन सूबा जिन पद पींजरे बसि । भूधरविलास पद संख्या 5
319
3. पार्श्वपुराण पृष्ठ 28
5. प्रकीर्ण पद गुटका संख्या 6766 7. पार्श्वपुराण पृष्ठ 26
9. दोय पक्ष जिनमत विषै, नय निश्चय व्यवहार |
तिन बिन लहै न हंस यह, शिव सरवर की सार ॥ जैनशतक दोहा 100