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महाकवि भूधरदास :
का सम्बन्ध है, कारकों की स्थिति प्रत्येक भाषा में अपरिवर्तनशील है; क्योंकि उनका सम्बन्ध वाक्यों में प्रयुक्त पदों की विवक्षा से है। हाँ, इस विवक्षा को बताने वाली भाषायी व्यवस्था में विनिमय या परिवर्तन सम्भव है। उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि संस्कृत के बाद प्राकृत में, अपभ्रंश में कर्ता, कर्म
और सम्बन्ध को बिक्तियों का शोर हो गया इसका अर्थ ५.६हीं कि इन कारकों का लोप हो गया, कारक तो ज्यों के त्यों है, हाँ, उनकी सूचक विभक्तियों के प्रत्ययों का लोप हो गया अर्थात् बिना भाषा सम्बन्धी प्रत्ययों के ही उनके कारक तत्व का प्रत्यय ज्ञान हो जाता है।
1. कर्ता कारक :- भूधर साहित्य में कर्ता कारक के आधुनिक प्रयोग की भांति “ने" चिह्न का होना तथा न होना - दोनों ही स्थितियाँ उपलब्ध होती है। यथा -
“किंधौं स्वर्ग ने भूमि को भेजी भेंट अनूप ।1
"कबही मुख पंकज तोरी देई"2 2. कर्म कारक :- कर्मकारक के प्रयोग में को, को, पै, के, सो, प्रत्ययों का प्रयोग मिलता है तथा नहीं भी मिलता है । उदाहरणार्थ - पुरुष को', मुखकै कलौस लगाई, काहू सों, तिनको यह, उस मारग मत जाय रे', शक्ति भक्ति बल कविन पै।
3. कारण कारक - करण कारक के प्रयोग “सौ" प्रत्यय से युक्त पाये जाते हैं तथा यत्र तत्र इस नियम के अपवाद भी द्रष्टव्य हैं यथा - सुधारस सौं', भागां मिलग्या ।
4. सम्प्रदान कारक :- सम्प्रदान कारक में कौं, सौं, कौं आदि चिह्नों का प्रयोग पाया जाता है। यथा - "कंचन कांच बराबर जिनकै ।11 "परमाद चोर टालन निमित्त ।
5. अपादान कारक :- अपादान कारक में सों, तें, चिह्न पाये जाते हैं । यथा - तुम त्रिभुवनपति कर्म ते क्यों न छडावो मोहि अंतंक सों न छटें।
1. पार्श्वपुराण पृष्ठ 4 4. पार्श्वपुराण पृष्ठ 6 7. भूधरविलास पद 21 10. भूधरविलास पद 12 13. भूधरविलास पदं 64
2. पार्श्वपुराण पृष्ठ 9 5, जेन शतक छन्द 6 8. पार्श्वपुराण पृष्ठ 3 11. भूधरविलास पद 51
3, पार्श्वपुराण पृष्ठ 42 6. जैन शतक छन्द 6 9. भूधरविलास पद 39 12.पार्श्वपुरण पृष्ठ 12