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महाकवि भूधरदास :
जड़ चेतन गुनदोषमय, बिस्व कीन्ह करतार । संत हंस गुन गहहिं क्य, परिहरि वारि विकार ॥
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जो दूसरों के हित के लिए अपने शरीर का त्याग कर देते हैं, सन्त उनकी प्रशंसा करते हैं -
2
परहित लागि तजें जो देही। संतन संत प्रसंसह तेही ।
सन्तों को दूसरों के द्रोह की बात याद ही नहीं रहती
3
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहिं। जिमि पर द्रोह सन्त मन नाहीं || सन्तों की यही बढ़ाई हैं कि बुरा करने वाले का भी भला करते हैं। उमा संत कड़ इह बड़ाई। मंद करत जो करत भलाई ।'
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4
कोटि विघ्न पड़ने पर भी उनका मन नीति का त्याग नही करता है -
भूमि न छोडत कवि चरन, देखत रिपु मद भाग । कोटि विघ्न ते संत कर, मन जिमि नीति न त्याग ||
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सन्त का हर काम, वृक्ष, नदी, पहाड़, पृथ्वी की तरह दूसरों के हित के लिए होता है
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6
सन्त बिटप सरिता गिरि घरनी । घर हित हेतु सबन्ह कै करनी ।
तुलसीदास के अरण्यकाण्ड में नारद को संतों के लक्षण श्री राम के द्वारा विस्तार से बतलाये है। 7 इसी प्रकार उत्तरकाण्ड में भी " सन्त हृदय नवनीत समाना,” “परुष वचन कबहुँ नहिं बोलहिं", "कोमल चित्त दीनन्ह पर दाया", “विगत काम मन नाम परायन", आदि कहकर सन्तों के अनेक गुणों पर प्रकाश डाला है ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मध्ययुगीन निर्गुण भक्ति साहित्य एवं सगुण भक्ति साहित्य में सन्त शब्द अपनी पूर्ववर्ती उदात्त अर्थ परम्परा का निर्वाह करता हुआ ही दृष्टिगोचर होता है ।
हिन्दी आलोचना को छोड़कर शेष समस्त आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी आज यह शब्द अपने परम्परा प्राप्त उदात्त अर्थ में ही प्रयुक्त होता है ।
1. मानस बालकाण्ड दोहा 6 3. वही उत्तरकाण्ड दोहा 16 चौ. 5. वही लंकाकाण्ड दोहा 34 ख 7. वही अरण्यकाण्ड दोहा 45, 46
2. मानस बालकाण्ड दोहा 64 चौपाई 2 4. वही सुन्दरकाण्ड दोहा 41 चौ. 4 6. वही उत्तरकाण्ड दोहा 125 चौ. 3