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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन है, चारों ओर ज्ञान का प्रकाश फैलाता रहता है । वह आध्यात्मिकता का ऐसा रूप होता है, जो व्यवहार में सिद्ध हो गया है। सन्तों की उपर्युक्त विशेषताएँ ऊपर ऊपर से आरोपित न होकर सहज है, अन्तर्मन से निस्सृत है। यही कारण है कि कोटि असन्तों से घिरे रहने पर भी वे अपनी सन्त वृत्ति का त्याग नहीं करते - वैसे ही जैसे सर्प चन्दन से लिपटे रहते हैं किन्तु चन्दन अपनी स्वाभाविक शीतलता का त्याग नहीं करता सन्त न छोडै संतई,जो कोटिक मिलहि असन्त । गाय मुलाः रोखियो, स न तजंत ।। मध्य युग के सगुण भक्ति साहित्य में भी सन्त शब्द की ऐसी ही अर्थस्थिति है । सगुण भक्ति साहित्य के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास ने सन्त की विशद चर्चा अनेक प्रसंगों में "रामचरितमानस" में की है। वे सन्त शब्द को असज्जन और खल का विपरीतार्थक मानते हैं। उनके मत से सन्त कोमल चित्त और कारूणिक होते हैं - “नारद देख विकल अयन्ता । लागि दया कोमल चित्त सन्ता ॥" उनका न कोई हित होता है न अनहित । वे अच्छे फूल की तरह सुगंध देने वाले होते हैं - बंदळ संत समान चित,हित अनहित नहिं कोई। अंबलिंगत सुभ सुमन जिमि,सम सुगंधकर दोई ॥' सन्त श्रमर की तरह गुणग्राही, निर्मल जल की तरह स्वच्छ, और मोह मदहीन हृदय वाले होते हैं। वे सदसदविवेकी हंस की तरह गुणों को दूध के समान ग्रहण कर लेते हैं और दुर्गुणों को वारि-विकार की तरह त्याग देते हैं - 1. अंदक विधिपद रेनु भवसागर जेहिं कीन्ह वहं । संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल विष बारूनी ॥ मानस पालखण्ड दोहा। 4 2. मानस अरण्यकाण्ड दोहा 2 चौपाई 5 3. मानस बालकाण्ड दोस3क 4. मघकर सरस सन्त गुन ग्राही-मानस अरण्यकाण्ड दोहा 10 5. सन्त हृदय निर्मल जस मारी- वही अरण्यकाण्ड दोहा 39 चौपाई 4 6. सरिता सर निर्मल जल सोहा। सन्त इदय जस गत मद मोहा । वही किष्किंधाकाण्ड दोहा 16 चौपाई 2
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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