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एक समालोचनात्मक अध्ययन
आधुनिक काल में सन्त शब्द के उदात्त अर्थ को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं उनमें कतिपय निम्नलिखित हैं - ___1. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार - “सन्त शब्द को (इसके अस् होने वाले मूल के कारण) हम उस व्यक्ति विशेष का बोधक कहेंगे जिसने सत् रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया है और जो इस प्रकार अपने साधारण व्यक्तित्व से उठकर उसके साथ तद्रूप हो गया है अथवा उसकी उपलब्धि के फलस्वरूप अखण्ड सत्य में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गया है।'
2. श्री वियोगी हरि ने लिखा है कि - "सत्य आचरण जिन्होंने अपने जीवन में पूरा किया, सत्य का चिन्तन किया, सत्य को वाणी पर उतारा, मन, वचन, कर्म से उसका आचरण किया और आचरण करने के बाद जो रसास्वादन मिला उसे सारे संसार में बिखेर देने के लिए जिनके मन में व्याकलता होती है, जिन्हें लगता है कि उन्हें जो मधुर रस मिला, वह दूसरों को भी देते चले जायें वे ही सन्त हैं।
3. श्री वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार- “सन्त वह है जो पृथ्वी पर निवास करते हुए दिव्य लोक का सन्देश भूतल पर लाता है, जो पक्षी के समान आकाश में उड़कर भी वृक्ष पर आकर विश्राम करता है, जो व्यष्टि के केन्द्र में ऊँचा उठकर समष्टि-जीवन के प्रति आस्थावान होता है, जो स्वार्थ को त्याग कर सामूहिक हित की बातें सोचता है।"
4. डॉ. नरेन्द्र भानावत के अनुसार - "सामान्यत: जो सत्पथ पर चले हों वे सन्त, जो आत्मा का शाश्वत अमर सन्देश सुनाते हों वे सन्त, जिनका सत् अर्थात् अस्तित्व हमेशा बना रहे, जो समाज की अनिवार्य निधि हो वे सन्त
5. डॉ. पीताम्बरदत्त वडध्वाल - “सन्त अध्यात्म विद्या का व्यवहार सिद्ध स्वरूए है। अध्यात्मवादी तत्त्वचिंतक जिन महान सिद्धान्तों का अन्वेषण और निरूपण करते चले आये हैं, उनकी उसे स्वयं अपने में अनुभूति हई होती है। उनका उसे शास्त्रीय वाचनिक ज्ञान न हो, दर्शन अवश्य होता है । वह अध्यात्म का व्याख्याता चाहे न हो, अध्यात्मचेता होता है । वह दृष्टा है । “दृष्टा" संत 1. सन्त साहित्य की भूमिका- आचार्य परशुरुम चतुर्वेदी पृष्ठ 62 2 भमिक्रान्त (साप्ताहिक पत्र इन्दौर) दिनांक 25 दिसम्बर 1961 पृष्ठ 1
में प्रकाशित श्री वियोगी हरि का लेख “सन्तों की परम्परा" 3.साहित्य सन्देश (सन्त साहित्य विशेषांक) डा. वासुदेवशरण अग्रवाल का लेख “सन्त” पृष्ठ 4. साहित्य के त्रिकोण- डॉ. नरेन्द्र भानावत पृष्ठ 133