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एक समालोचनात्मक अध्ययन
इसीप्रकार भूधरदास अपने आराध्य से भव-नव में स्वामी होने की तथा स्वयं के सेवक होने की प्रार्थना इसप्रकार करते हैं
कब होउ भव भव स्वामी मेरे मैं सदा सेवक रहौं । कर ओरि यह वरदान माँगों, पोखपद जावत लहौं ।'
भक्ति से मुक्ति भी जैनधर्म में उपचार से कही जाती है। वास्तव में भक्ति रागरूप होने से मोक्ष का कारण नहीं है। वीतरागता ही मोक्ष का कारण है । इसीप्रकार भक्ति साध्य भी नहीं है, साधन मात्र है। भक्ति द्वारा जीव विषय - कषाय से बचकर सद् निमित्तों का सान्निध्य प्राप्त कर लेता है; यही भक्ति की उपयोगिता है
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3. प्रेम भाव भूधरदास ने आत्म- परिष्कारजन्यं भगवद्-प्रेम का वर्णन लौकिक उपकरणों के माध्यम से किया है। इस दृष्टि से कवि द्वारा वर्णित आध्यात्मिक होलियाँ, आध्यात्मिक विवाह, नेमि - राजुल का प्रेम एवं विरह, संयोग- श्रृंगार एवं दाम्पत्य पद्धति पर रचित पद उल्लेखनीय हैं।
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भूधरदास ने आध्यात्मिक होलियों का वर्णन अनेक प्रकार से किया है । नायिका अपनी सखियों के साथ श्रद्धारूपी गगरी में आनन्द रूपी जल से रुचिरूपी केसर घोलकर और रंगे हुए नीर को, उमंग रूपी पिचकारी में भरकर अपने पति के ऊपर छोड़ती है। साथ ही पति के साथ होली खेलकर अपने विरह का अन्त मानती है—
होरी खेलूंगी घर आये चिदानन्द ।
शिवर मिथ्यात गई अब आइ काल की लब्धि बसंत ॥
पीय संग खेलनि कों, हम सइये तरसी काल अनन्त । भाग जग्यो अब फाग रचानौ, आयौ विरह को अंत ॥
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सरधा गागर में रुचि रूपी केसर धोरि तुरन्त । आनन्द नीर उमंग पिचकारी छोडूंगी नीकी भंत ॥
1. पार्श्वनाथ स्तुति, प्रकीर्णक पद, अन्तिम छन्द