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एक समालोचनात्मक अध्ययन
कवि अपने आपको अधम मानकर करुणा के सागर शान्तिनाथ प्रभु से संसार समुद्र से पार करने, भवद्वन्द को समाप्त कर तारने की बात कहता है
एजी मोहि तारिये, शान्ति जिनन्द।। तारिये-तारिये अधम उधारिये, तुम करुणा के कन्द ।। ........................
"भूधर" विनवै दूर करो प्रभु, सेवक के भवद्वन्द ॥ कवि अपने को सीमन्धर स्वामी के चरणों का चेला (शिष्य) मानकर अपने प्रभु को समर्थ निरूपित करता है—
सीमन्धर स्वामी, मैं चरन का चेरा। इस संसार असार में कोई और न रक्षक मेरा।
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नाम लिये अध न रहे ज्यों, ऊमैं भान अन्धेरा।
“भूधर* चिन्ता क्या रही, ऐसा सपरथ साहिब तेर ।' सूर और तुलसी की तरह कवि भूधरदास ने भी अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठता या अनन्यता का भाव प्रदर्शित किया है; परन्तु इस अनन्यता में कवि का मोह व्यक्ति विशेष के प्रति न होकर गुणों के प्रति रहा है। यह जैन आराध्य का अपना वैशिष्ट्य है।
हिन्दी भक्त कवियों की तरह कवि भूधरदास ने भी अपने आराध्य के नामस्मरण या नामजप की महत्ता को अनेक प्रकार से अभिव्यंजित किया है। नामजप की महिमा को बतलाने वाले कवि के अनेक पद दर्शनीय है । उदाहरणार्थ(क) जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो॥ (ख) सब विधि करन उतावला, सुमरन को सीरा ॥ (ग) रटि रसना मेरी ऋषभ जिनन्द सुर नर यक्ष चकोरन चन्द ॥ (घ) मेरी जीभ आठौं जाम, अपि-जपि ऋषभ जिनेश्वर नाम ॥
1. भूषविलास पद 39 3. जैनशतक छन्द 46 5. भूधरविलास पद 15 7. वही पद 23
2 पूधरविलास पद 2 4. भूधरविलास पद 25,36,41 6. वही पद 22 8. वही पद 24