________________
270
महाकवि भूधरदास : है । सिद्ध ही प्रभु है । इसप्रकर भूधरदास के पदों में सख्य भाव की भक्तिभावना दिखाई देती है।
2. दास्य भाव - आराध्य के प्रति विनय की भावना दास्य भाव है। दास्य भाव के अन्तर्गत आराध्य की प्रभुता, शरणागत की रक्षा, वत्सलता आदि भावों के प्रति आस्था और आदर प्रदर्शित कर भक्त अपनी दीनता, लघुता तथा याचना की चर्चा करता है।
कवि भूधरदास अपने प्रभु को “दीनदयालु" मानकर अपने ऊपर कृपा करने की बात इसप्रकार करते हैं
अहो ! जगतगुरु देव, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीनदयाल, मैं पितमा संसारी । इस भव बन में वादि काल अनादि गमायो। भ्रमत चहुँगति माहिं सुख नहिं दुःख बहु पायो ।।
----H
+Ma+++H+HIH.Hirk
-.--.an.rani.
i
m+H
H HI.
-
n...
दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै । विनवै भूधरदास हे प्रभु ! ढील न कीजै ॥
कवि अपने प्रभु की अद्भुत महिमा का बखान करते हुए उन्हें पतितपावन और अधम-उद्धारक के रूप में देखता है। साथ ही उनसे सेवा का वरदान मांगते हुए उन्हें दानी तथा अपने को याचक भी कह देता है
अबलो नहिं उर आनी ॥ म्हे तो॥ टेक काहे को भववन में प्रमते, क्यों होते दुःखदानी ॥ नाम प्रताप तिरे अंजन से, कीचक से अभिमानी।
....
....NIHINHHH
H
..
...WHHHHIHIN-..
ऐसी साख बहुत सुनियत है, जैन-पुराण बखानी ।।
"भूयर' को सेवा वर दीजै, मैं जाचक तुम दानी।।' 1. जैन पद संमह तृतीय पाग-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, विनती पद - 7
तथा वृहज्जिनवाणी संग्रह पृष्ठ 530-531 2. भूषविलास पद 49 3. वही पद 37