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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 251 ऐसी जगरीति को न देखि भयभीत होय हा हा नर मूढ़ ! तेरी मांत कोने हरी है। मानुष जनम पाय सोवत विहाय जाय खोबत करोरन की एक एक घरी है।' संसार की अतिविचित्र स्थितियों को देखकर भी अज्ञानी धन, जीवतव्य आदि से विरक्त नहीं होता है। सब कुछ देखकर भी अनदेखा करता है, ऐसे रोग का क्या इलाज किया जाय ? देखो भरजोबन मैं पुत्र को वियोग आयौ, तैसे ही निहारी निजनारी काल मग मैं। जे जे पुन्यवान जीव दीसत है या मही पै, रंक भयै फिरै तेऊ पनहीं न पग मैं ॥ एते पै अभाग धन जीतब सौं धरै राग, होय न विराग जाने रहूँगो अलग मैं। आँखिन विलौकि अंघ सूसे की अंधेरी करे, ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं ।। यद्यपि संसार की दशा अति कष्टप्रद है। फिर भी अज्ञानी राग का उदय होने से भोगों का भोगना चाहता है । धन-ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र आदि सभी राग के कारण उसे सुहावने लगते हैं। वह हमेशा उन्हीं में रत रहता है। वे सब उसे सुखकर प्रतीत होते हैं किन्तु बिना राग वाले ज्ञानी के लिए ये पदार्थ-भोग "कारे नाग" के समान लगते हैं। यही राग और वैराग्य का अन्तर है राग उदै भोगभाव लागत सुहावने से, बिना राग ऐसे लागैं जैसे नाग कारे हैं। राग ही सौं पाग रहे तन मैं सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होते न्यारे हैं ।। 1. जैन शतक, छन्द 21 2. वही, छन्द 35
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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