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महाकवि भूषरदास :
अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि लोकोक्तियों और रूपकों का इसने बेखटके प्रयोग किया है।
यद्यपि श्रृंगाररस को रसराज कई आचार्यों ने माना है तथा करुण रस का प्राधान्य भी कई विद्वानों के द्वारा स्वीकार किया जा चुका है, परन्तु शांत रस का प्राधान्य भूधरदास द्वारा प्रतिपादित किया गया है। साथ ही अद्भुत, वीभत्स, भयानक, वीर आदि अन्य रस भी उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये; क्योंकि मानव जीवन में इनका भी स्थान है।
संसार सुखमय नहीं, अपितु दुःखमय है और उसे दु:खमय मानकर विरक्त होना पलायन नहीं है, क्योंकि मानवरूपी यात्री मानवजीवन रूपी यात्रा पर नियति के आदेश से निकला है। वह अपनी यात्रा को सुखमय मानकर चलता है और यदि उसे दुःख प्राप्त होते हैं तो उसे घोर निराशा होगी; परन्तु यदि वह उसे दु:खमय मानकर चले और मार्ग में दुःख न भी हो तो उसे निराशा नहीं होगी, अपितु प्रसन्नता होगी और वह अपने अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर अनन्त सुखी हो जायेगा । मार्ग याद कटकाकीण न भी हुआ हो तो कोई हानि नहीं, परन्तु मार्ग सचमुच निरापद नहीं है, क्योंकि संसार दुःखमय है।
संसार में हम क्या देखते हैं ? यही न कि एक आदमी को कुछ सम्पत्ति प्राप्त हो गई तो दूसरे ने खो दी है। एक को व्यापार में खूब लाभ हो रहा है तो दूसरा सिर पर हाथ रखकर रो रहा है। किसी के घर पुत्रोत्पति हुई है और वह आनन्द मना रहा है तो किसी का होनहार पुत्र काल के गाल में समा गया है और वह रो रहा है । सवेरे जिसके विवाह पर प्रसन्नता थी, शाम को उसी की मृत्यु ने सबको शोक सागर में डुबा दिया, परन्तु संसार अपने पथ पर बढ़ा जा रहा है, रुकना नहीं चाहता, सद्कार्यों की ओर, धर्म की ओर प्रवृत्ति नहीं करना चाहता और "करोरन की एक एक घरी" को खोता रहता है। संसार के इस नग्न सत्य का चित्र कवि के शब्दों में इसप्रकार है
काहू घर पुत्र जायौ काहू के वियोग आयौ, काहू राग-रंग काहू रोआ रोई करी है। जहाँ भान ऊगत उछाह गीत गान देखे, साँझ समै ताही थान हाय हाय परी है।।