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________________ 252 महाकवि भूधरदास : राग ही सौ जगरीति झूठी सब साँची जाने, राग मिटें सूझत असार खेल सारे हैं। रागी-विनरागी के विचार मैं बड़ौई भेद, जैसे भटा पच काहू काहू को बयारे हैं।' इसीलिए कवि वीतरागी होने की भावना भाते हुए कहता है कब गृहवास सौं उदास होय वन सेॐ वेॐ निजरूप गति रोकूँ मन करी की। रहि हौं अडौल एक आसन अचल अंग, सहि हो परासा शांत-धाम-मेघ-झरी की। सांरग समाज खाज कबधौं खुजे हैं आनि, ध्यान-दल-जोर-जीतूं सेना मोह-अरी की। एकल-विहारी जथाजात लिंगधारी कब, होऊ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की। अज्ञानी प्राणी राग के कारण नित नवीन भोगों को भोगना चाहता है, किन्तु भोगों के साधन प्राप्त कैसे हों ? बिना पूर्व पुण्योदय के तो वे प्राप्त होते नहीं और यदि कर्मयोग से मिल जायें तो जीव रोग के कारण उन्हें भोग नहीं पाता और भोग ले तो दुर्गति में दुःख उठाने पड़ते हैं। अत: भोगों की चाह ठीक नहीं तू नित चाहत भोग नए नर, पूरब पुन्य बिना किम पै है। कर्म संयोग मिले कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सके है ।। जो दिन चार को व्यौंत बन्यौं कहूँ, तौ परि दुर्गति में पछित है। याहिते यार सलाह यही कि, गई कर जाहु निबाह न ह्वै है ।' 1. जैन शतक, छन्द 18 2. जैन शतक, छन्द 17 3. जैन शतक, छन्द 19
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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