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महाकवि भारदास
इच्छाओं की उत्पत्ति | इसे दूसरे शब्दों में शास्त्रकारों ने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र कहा है । वस्तु स्वरूप के विपरीत मानना मिथ्यादर्शन, विपरीत जानना मिथ्याज्ञान और विपरीत आचरण करना मिथ्याचारित्र है। इन्हीं के कारण यह प्राणी पर को अपना मानता है और व्यर्थ ही सुख दुख की कल्पनाएँ करता है :
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" मोहमत्त प्राणी हठ गर्दै अथिर वस्तु को थिर सरद है। जो पर रूप पदारथ पाति, ते अपने माने दिन राति ॥ ""
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इस समस्या का एक मात्र समाधान है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र अर्थात् वस्तु स्वरूप को यथार्थ मानना, जानना व आचरण करना सुखी होने का सच्चा उपाय है, इसीलिए कवि सम्यग्दर्शनादि को हितकारी बतलाता है
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" सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तए ये जिय को हितकारी ।
ये ही सार असार और सब यह चक्री चितधारी ।। *
यह व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व की सार्वभौमिक और सार्वकालिक अनन्त समस्याओं का सार्वभौमिक और सार्वकालिक एक मात्र समाधान है। यही भूधरदास के पार्श्वपुराण की रचना का एक महान उद्देश्य है ।
पार्श्वपुराण की रचना का एक उद्देश्य दूसरों को ग्रन्थ पढ़कर ज्ञान की प्राप्ति हो उपकार करना है । इस उद्देश्य से ही कवि
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1. पार्श्वपुराण 2. पार्श्वपुराण
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कवि स्वयं धर्मध्यान में रहे तथा इस प्रकार स्व और पर दोनों का ने ग्रन्थ बनाने का उद्यम किया है
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" जौ लौ कवि काव्य हेत आगम के अक्षर को, अरथ विचारे तौ लौ सिद्धि शुभध्यान की । और वह पाठ जब भूपरि प्रगट होय,
पढ़े सुनें जीव तिन्हें प्रापति वै ज्ञान की ।
अधिकार 2 पृष्ठ 9 अधिकार 3 पृष्ठ 18
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