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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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पहिमा महंत मुनिजन जपत, आदि अन्त सबको सरन ।
सो परमदेव मुझ मन बसो, पार्श्वनाथ मंगल करन ।' प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में प्रथम र कलिने पपर्तनाथ की स्तुति की है । पार्श्वनाथ के साथ ही चौबीस तीर्थकर के रूप में अरहन्त, सिद्ध. आचार्य, उपाध्याय और साधु - इन पाँचों परमेष्ठियों की वन्दना करने में भक्ति रस विद्यमान है -
बन्दों तीर्थकर चौबीस । वन्दो सिद्ध बसें जगसीस ।।
बन्दों आचारज उवझाय। वन्दों परम साधु के पाय॥' पंचकल्याणों के अवसर पर देवों द्वारा पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है ! उस स्तुति में भक्ति रस की धारा फूट पड़ी है -
तुम जगपति देवन के देव । तुम जिन स्वयं बुद्ध स्वयमेव ।। तुम जग रक्षक तुम जगतात । तुम बिनकारन बन्धु विख्यात । तुम गुनसागर अगम अपार । धुतिकर कौन जाय जन पार ।। सूच्छम ज्ञानी मुनि नहिं नरें। हमसे मंद कहा बल घरे। नमो देव अशरन आधार। नमो सर्व अतिशय भंडार ॥
नमो सकल जग संपति करन । नमो नमो जिन तारन तरन ।। ' ग्रन्थ के अन्त में भी कवि पार्श्वनाथ के प्रति भक्ति प्रदर्शित करता है -
जे गरभ जनम तप ज्ञान काल । निर्वान पूज्य कीरति विशाल ।।
सुर नर मुनि जाकी करें सेव। सो अयो पार्श्व देवाधिदेव ।। पुन : -
विधन हरन निरभयकरन, अरून वरन अभिराम ।
पास चरन संकट हरन, नमो नमो गुनधाम ।। 1. पार्श्वपुराण- कलकत्ता, अधिकार 1 पृष्ठ 1 2. वही अधिकार 1, पृष्ठ 1-2 3. वही अधिकार 6, पृष्ठ 65
4. वही अधिकार 9, पृष्ठ 5