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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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है । कवि ने इस आदर्श का यशोगान पार्श्वपुराण के कथानक में करके कथानक को महानता के शिखर पर प्रतिष्ठित किया है।
कथानक का अर्थ है- घटनाओं का समन्वय । महान कथानक का अर्थ है महान घटनाओं का समन्वय । घटनाओं की महानता से तात्पर्य उसके प्रबल प्रभाव एवं देशकाल में उसके विस्तार से है । कोई घटना तभी महान हो सकती है, जब उसका प्रभाव गहरा हो और वह सार्वभौमिक और सार्वकालिक होने की क्षमता अपनी में रखती हो । कथानक की परिणति शुभ और मंगलमय होना भी कथानक की महानता के लिए आवश्यक है। इस दृष्टि से 'पार्श्वपुराण का कथानक उपर्युक्त सभी विशेषताओं से युक्त है। उसमें स्पष्टत: एक ऐसे कथानक को लिया गया है, जो मानव जीवन के चरमलक्ष्य मोक्ष को केन्द्र बिन्दु बनाकर गति प्राप्त करता है। इसलिए कथानक में सर्वत्र भौतिक सुख-समृद्धि को पुण्य का फल निरूपति कर परमानन्द (मोक्ष) प्राप्ति के लिए बाधक मानकर हेय प्ररूपित किया गया है तथा आध्यात्मिक पूर्णता को जीवन का चरम लक्ष्य मानने का सन्देश दिया गया है।
__“पार्श्वपुराण” में जो घटनाएँ वर्णित हैं, उनका क्षेत्र बाह्य संसार नहीं; अपितु अन्तर्जगत है । मानवचेतना ही वह अन्तजर्गत है, जहाँ अच्छे बुरे सभी विकार जन्म लेते हैं । अन्तचेतना में उद्दीप्त रागद्वेषमयी वृत्तियाँ समग्र जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं । रागद्वेषात्मक वृत्तियों के इस गहरे प्रभाव से “पार्श्वपुराण" के कथानक में भी महानता आ गयी है । इन वृत्तियों में बैर की वृत्ति को कमठ का जीव मरूभूति के जन्म से आगामी कई जन्मों में लिए रहता है, जबकि पार्श्वनाथ का जीव प्रत्येक जन्म में क्षमा धारण करते है। इस प्रकार वैर और क्षमा की वृत्ति को धारण किये हुए कथानक वहाँ घरमावस्था को प्राप्त होता है, जहाँ अन्तिम जन्म में पार्श्वनाथ “संवर" नामक ज्योतिषी देव के उपसर्ग किये जाने पर भी तीर्थकर बन जाते है और “संवर" देव अपनी करनी पर पश्चाताप करता हुआ पार्श्वनाथ की शरण ले लेता है। कथानक में तीर्थकर के पंचकल्याणकों को भी महान अवसर मानकर जोड़ दिया है, जिससे भी कथानक महानता से युक्त हो गया है। कथानक को महान बनाने में पार्श्वनाथ का पूर्वजन्मों में महामंडलीक राजा, चक्रवर्ती राजा, इन्द्र, अहमिन्द्र बनना तथा