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महाकवि भूधरदास :
कवि ने पार्श्वनाथ के चरित्र को चित्रित करने के साथ-साथ विविध प्रसंगों के माध्यम से जैनदर्शन के सिद्धांतों को यत्र-तत्र इसप्रकार गूंथ दिया है कि वे पृथक् प्रतीत न होकर कथानक का अंश ही प्रतीत होते हैं । गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान एवं निर्वाण कल्याणकों के प्रसंगों द्वारा कवि ने सच्चे देव, शास्त्र, गुरु, धर्म का स्वरूप, जिनकथा श्रवण की महत्ता, सम्यग्दर्शन का महत्व, बारह भावना, बारह तप, दस धर्म, बाबीस परीषह, पाँच समिति, सोलहकारण भावनाएँ चक्रवर्ती की सम्पत्ति, श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएँ सागर का प्रमाण, आठ प्रकार के राजाओं का वर्णन, जिनबिम्ब पूजा की महत्ता, तीन लोक की रचना एवं उसका प्रमाण आदि, स्वर्ग के सुख तथा नरक के दुःख का विशेष वर्णन, माता के सोलह स्वप्न एवं उनका फल, छप्पन कुमारियों द्वारा माता से विविध प्रश्नोत्तर, जन्म के दस अतिशय जन्माभिषेक का विशेष वर्णन, दीक्षा के प्रसंग में सम्यग्दर्शन पूर्वक चारित्र ग्रहण की महत्ता, अट्टाईस मूलगुण, हुंडापसर्पिणी काल की कुछ विपरीत बातों का वर्णन, केवलज्ञान के दस अतिशय, समवशरण की रचना का वर्णन, चौदह देवकृत अतिशय हेय, ज्ञेय, उपादेय-पूर्वक छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय आदि का विशेष वर्णन किया है।
इसके अतिरिक्त अच्छे बुरे परिणामों का फल बतलाने हेतु नरक, मनुष्य, तिर्यंच देव, बहरे, गूंगे, लंगड़े, अंधे, धनी, दरिद्री, पुरुष, स्वी, नपुंसक, दीर्घ आयु, अल्प आयु, पंडित, मूर्ख, रोगी, निरोगी, पुत्र प्राप्ति, पुत्र का अभाव या वियोग, ऊँच, नीच, इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थकर आदि किसप्रकार के भावों से होते हैं; यह बतलाकर बुरे भावों को त्यागने एवं अच्छे भावों को ग्रहण करने का उपदेश दिया है।
इसप्रकार कवि ने पार्श्वनाथ के चरित्र वर्णन के माध्यम से जैनदर्शन के सिद्धान्तों का परिचय भी करा दिया है, जो उनका एक उद्देश्य था।
अधिक प्रसिद्धि के कारण “पार्श्वपुराण" की प्रकाशित और हस्तलिखित कई प्रतियाँ मिलती है, जिनमें जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता तथा वीरप्रेस जयपुर आदि द्वारा प्रकाशित प्रतियाँ सहज उपलब्ध हैं।
___ कवि ने पार्श्वपुराण की रचना विक्रम संवत् 1789 में की । ग्रन्थ समाप्ति का उल्लेख कवि ने निम्नलिखित शब्दों में किया है—