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एक समालोचनात्मक अध्ययन
155 भक्ति, निश्चय करि अभेद रत्नत्रयमयी निजात्मा की भावना - ए ही शरण है। तदुक्तं गाथा -
दसंणणाणचरितं, सरणं सेवेह परमसिद्धाणं ।
अण्णं किंपि न सरणं संसारे संसांताणं ।। अन्यच्च -
ऐगो मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
मेसा मे बाहिरा भावा, सलो संजोगलक्खणा ॥ “इस प्राकृत का अर्थ विचार कै विषय कषाय सौं विमुख होई शुद्ध चैतन्य स्वरूप की निरन्तर भावना करनी । यही मोक्ष का मार्ग है।" अन्तिम प्रशस्ति के रूप में भूधरदास कहते हैं -
भूधर विनवै विनय करि, सुनियो सज्जन लोग। गुण के प्राहक हूजिये, इह विनती तुम जोग। गुणग्राही शिशु थन लगै, रुधिर छोड़ि पय लेत। इह बालक सों सीखिये, जो शिर आये सेत॥ धिक् दुरजन की बार को, गुण तजि ओगुण लेई। गजपस्तक मणि छांडि के वायस अभख भखेड़। दुरजन ओगुण ही गहै, गुण कू देइ बहाय।
ज्यों मोरी के जाल में, घास फूस रहि जाय ॥' द्वेष भाव को दुःख का कारण तथा मैत्रीभाव को सुख का कारण प्ररूपित करते हुए कहते हैं -
द्वेषभाव सम जगत में, दुखकारण नहिं कोय। मैत्री भाव समान सुख, और न दीसै लोय ।। मैत्री भाव पीयूष रस, बैरभाव विषपान ।
अमृत होय विष खाइये, किस गुरु का यह ज्ञान ।। मान को छोड़ने का उपदेश देते हुए वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ अपने ग्रन्थ की उपयोगिता तथा जैनधर्म की महत्ता बतलाते हुए ग्रंथ का अवसान किया गया है - ।, बर्चा समाधान, भूधरदास, कलकत्ता पृष्ठ 122 2. चर्चा समाधान, भूधरदास, कलकत्ता पृष्ठ 122-123 3. चर्चा समाधान, भूधरदास, कलकत्ता पृष्ठ 123