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एक समालोचनात्मक अध्ययन
105 सिवाय कुछ मतों ने वेदों की भांति ही पुराणों तथा स्मृतियों को भी प्रधानता दे रखी थी। अतएव इनके पारस्परिक मतभेदों के कारण एक को दूसरे के प्रति द्वेष, कलह या प्रतियोगिता के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन मिला करता था और बहुधा अनेक प्रकार के झगड़े खड़े हो जाते थे।"
ऐसी स्थिति में “परम्पराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में धर्म ऐसा रूप खोज रहा था कि वह केवल आचार्यों की वाणी में सीमित न रहकर जन-जीवन की व्यावहारिकता में उतर सके और ऐसा रूप ग्रहण करें कि वह अन्य धर्मों के प्रसार में समानान्तर बहते हुये अपना रूप सुरक्षित रख सके । वह रूप सहज तथा स्वाभाविक हो तथा अपनी विचारधारा में सत्य से इतना प्रखर हो कि विविध वर्ग और विचार वाले व्यक्ति अधिक से अधिक संख्या में उसे स्वीकार कर सकें और अपने जीवन का अंग बना लें।" - इस तथ्य को ध्यान में रखकर भूधरदास ने धर्म का ऐसा सार्वजनिक, सार्वभौमिक और सार्वकालिक रूप प्रस्तुत किया जो मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक भी है। जिसकी परणति व्यवहार में पार्श्वपुराण के नायक “पार्श्वनाथ” में जन्म जन्मान्तरों से चलती रही है और प्रत्येक जीव में चल सकती है। साथ ही उसने अन्य सभी धर्मों विशेषकर हिन्दी के सन्तों द्वारा प्रवर्तित धर्म के समानान्तर चलते हुए अपना वैशिष्टय भी बनाये रखा है। भूधरदास द्वारा प्रतिपादित धर्म, धार्मिक एवं नैतिक आदर्श इतने सरल और सहज है कि किसी भी धर्म, जाति, वर्ग या सम्प्रदाय का व्यक्ति उसे अपने जीवन में आसानी से अपना सकता है।
(घ ) साहित्यिक परिस्थितियाँ मुगलकालीन साहित्यिक गतिविधियाँ सन्तोषजनक नहीं थीं। लड़भिड़कर मुगलसेना और हिन्दू राजा अपनी शक्ति खो चुके थे। विशाल राष्ट्रीय कल्पना तथा उच्च नैतिक आदर्श की आस्था उनमें नहीं थी। मुगलकालीन शासकों की नीति का प्रभाव तत्कालीन साहित्य पर भी पड़ा । मुगलशासक भोग
1. हिन्दी साहित्य द्वितीय खण्ड सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा पृष्ठ 209 2. इस संबंध में प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अन्तर्गत लिखे गये अधरदास के धार्मिक, दार्शनिक
एवं नैतिक विचार देखें।