________________
XM
महाकवि भूधरदास : सिद्ध, नाथ और सन्त मत को धार्मिक मानते हुए डॉ. धर्मवीर भारती का कथन है कि - "न केवल सिद्ध वरन उनकी परम्परा में माने जाने वाले नाथों
और सन्तों के साहित्य के विषय में भी विद्वानों की यह सम्मति रही है कि उनमें काव्य गौण रहा है, धार्मिक विवेचन प्रमुख ।" ।
सन्त काव्य की लोक भूमि सभा काव्य की खोकभूमि का परिषद प्राप्त करना आवश्यक है; क्योंकि सन्त काव्य अपने युग एवं अपनी परम्परा का लोकप्रतिनिधि काव्य है । किसी भी देश का साहित्य उसकी सांस्कृतिक धरोहर होता है; अतएव सन्त काव्य भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। 'आचार्य परशुराम चतुर्वेदी सन्तकाव्य की लोक भूमि की ओर संकेत करते हुये लिखते हैं - "सन्त काव्य की लोकप्रियता उसके काव्यत्व की प्रथरता पर निर्भर नहीं। वह जनसाधारण के अन्तर्गत कवियों व क्रान्तिदर्शी व्यक्तियों की स्वानुभूति की यथार्थ अभिव्यक्ति है और उसकी भाषा जनसाधारण की भाषा है। उसमें साधारण जनसुलभ प्रतीकों के ही प्रयोग हैं
और वह जनजीवन को स्पर्श भी करता है। वह सभी प्रकार से जनकाव्य कहलाने योग्य है; जिस कारण उसकी परम्परा की छोरें अमित काल तक उपलब्ध समझी जा सकती है।" ' डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भी सन्त काव्य को जन आन्दोलन की अभिव्यक्ति का साहित्य मानते हैं।' यद्यपि सन्त काव्य परम्परा का स्पष्ट स्वरूप सन्त कबीर के समय से ही मिलता है तथापि इसी पृष्ठभूमि में हमें संतों की वानियों का पूर्वरूप नाथपंथियों की जोगेसुरी वानियों तथा सिद्धों के दोहों में भी उपलब्ध हो जाता है । इस प्रकार सन्त काव्य परम्परा को हम उस परम्परा से आबद्ध पाते हैं, जो भारतीय लोक मानस में शताब्दियों से अपना स्थान बनाये हुए है। युगों से प्रवाहित भारतीय लोक मानस की क्रिया प्रतिक्रिया ही वास्तविक रूप में सन्त-साहित्य की पृष्ठभूमि है।... सन्त काव्य इसी लोक जीवन की वाणीगत अभिव्यक्ति है । यद्यपि सन्त काव्य भारतीय चिन्तनधारा का स्वाभाविक विकास है; किन्तु मुस्लिम - आक्रमणों ने भी सन्त काव्य की लोकभूमि को
1. सिद्ध साहित्य-डॉ. धर्मवीर भारती पृष्ठ 237 2. नाथपंथ और निर्गुण सन्त काव्य-डॉ.कोमलसिंह सोलंकी पृष्ठ 27 3. आलोचना इतिहास विशेषांक- “सन्त काव्य की परम्परा" लेख परशुराम चतुर्वेदी पृष्ठ 8 4. हिन्दी साहित्य भूमिका- डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 31 5. नाथपंथ और निर्गुण सन्त काव्य-डॉ. कोमलसिंह सोलंकी पृष्ठ 31 6. वही पृष्ठ 32