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एक समालोचनात्मक अध्ययन
श्री राहुल सांस्कृत्यायन भी सन्त काव्य को किसी एक दृष्टि से देखने का निषेध करते हैं। वे लिखते हैं - "सन्त काव्य एक पूर्ण शरीर है, जिसके अंग को देखकर उसका पूरा परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं।" 1
सन्त काव्य का मूल स्वर आध्यात्मिक या धार्मिक है, यह सर्वमान्य है। किन्तु केवल इसीलिए हम उसे काव्य की परिधि से बाहर नहीं मान सकते जैसा कि कुछ समीक्षकों ने किया है। उसे धार्मिक और साम्प्रदायिक कहकर उपेक्षित करना ठीक नहीं है । इस सम्बन्ध में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्थापना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-"केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो तुलसी की रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी.को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा। इसी बात को वे सूत्र रूप में इस प्रकार स्थापित करते हैं - "धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए।"
सन्त काव्य को अनेक विद्वानों ने धार्मिक या आध्यात्मिक माना है। उनमें से कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित है -
डॉ. कोमलसिंह सोलंकी लिखते हैं कि - "सिद्धों और नाधों की अनुभूतियों का सीधा सम्बन्ध सन्त काव्य से ही जोड़ा जा सकता है। भारतीय जीवन के मध्ययुगीन चिन्तन में बौद्धों के परवर्ती रूप सिद्धों तथा शैवों के परवर्ती रूप नाथों का महत्त्वपूर्ण योग है। उनकी रचनाएँ भी धार्मिक या आध्यात्मिक कोटि में आती हैं ।" आगे वे लिखते हैं - "सम्प्रदायों के गठन होने के बाद अधिकांश सन्तों की वानियाँ आध्यात्मिक पिष्टपेषण और साधनात्मक ऊहापोह से भरी
1. हिन्दी साहित्य, भूमिका राहुल सांस्कृत्यायन पृष्ठ 4 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 11 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ 17 4. हिन्दी साहित्य का आदिकाल पृष्ठ 11 5. वही पृष्ठ 11 6. नाथपंथ और निर्गुण सन्त काव्य-डॉ. कोमलसिंह सोलंकी पृष्ठ 26 7. वही पृष्ठ 28