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महाकवि भूघरदास :
ईश्वर की भक्ति का जो रूप स्थिर हुआ वही साहित्य के क्षेत्र में “सन्त काव्य" कहलाया।" __जहाँ एक ओर डॉ. पीताम्बर बड़थ्वाल जैसे मनीषी सन्तों की वाणियों को साहित्य की अमूल्य निधि मानते हैं; वहाँ दूसरी ओर डॉ. नगेन्द्र एवं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ' जैसे प्रबुद्ध विचारक सन्त काव्य के साहित्यिक मूल्य को स्वीकार ही नहीं करते हैं।
सन्त काव्य का साहित्य के निकष पर मूल्यांकन करने के लिए एक विशेष दृष्टि की आवश्यकता है । सन्त काव्य "लौकिक" काव्य शास्त्र की सुदृढ़ मर्यादा के निर्णय का मुखापेक्षी नहीं है । उसे इस कसौटी पर कसना उचित नहीं है; क्योंकि सन्त कवि आध्यात्मिक साधक थे। उनकी काव्य निर्माण में एक विशेष जीवन दृष्टि थी। उस आध्यात्मिक दृष्टि को ध्यान में रखकर ही हमें उनके साहित्य का निर्णय करना चाहिए। इस सन्दर्भ में डॉ. धर्मवीर भारती का यह कथन ध्यातव्य है - "निस्सन्देह इस प्रकार का निर्णय लौकिक काव्यशास्त्र की कसौटी पर कसकर दिया जाता रहा है । किन्तु हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि इन समस्त कवियों के सम्मुख जीवन का लौकिक पक्ष उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था। वे साधक थे और साधक के लिये लौकिक जीवन बन्धन था, अज्ञान था, मायाजाल था। उनकी समस्त साधना का लक्ष्य ही यह था कि वह इस मायाजाल से किसी प्रकार मुक्त होकर लौकिक जीवन से दिव्य और आध्यात्मिक अर्थों को ग्रहण कर पाये। इसीलिये उनके काव्य को लौकिक काव्यशास्त्र की कसौटी पर कसकर हम उनका सही मूल्यांकन नहीं कर सकते और न उनके दृष्टिकोण को सही समझ सकते हैं। उनके काव्य का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें उसी दृष्टिकोण का परिचय प्राप्त करना चाहिये जिससे प्रेरित होकर, जिसे आधार बनाकर यह काव्य प्रणीत किया गया है ।"5
-- .- -.. .. ... 1. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (तृतीय संस्करण) डॉ रामकुमार वर्मा पृष्ठ 2973 2. दि निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोईटी : पो. डी.बड़थ्वाल भूमिका पृष्ठ 3 3. नगेन्द्र ,सभापति का वक्तव्य, निबन्ध गोष्ठी : भारती हिन्दी परिषद्
15 वां अधिवेशन प्रयाग 9 4. हिन्दी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ 71 5. सिद्ध साहित्य-डॉ. धर्मवीर भारती पृष्ठ 337, 38