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एक समालोचनात्मक अध्ययन
से मानते हैं। डॉ. धर्मवीर भारती सिद्ध साहित्य के परवतांप्रभाव और पारणाम स्वरूप सन्त साहित्य का आर्विभाव मानते हैं। ' डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में संतों की रचनाओं को भारतीय चिन्तन का स्वाभाविक विकास माना है । उनका कथन है कि - यदि कबीर आदि निर्गुण मतवादी सन्तों की वाणियों की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णत: भारतीय है और बौद्ध धर्म के बाद सिद्धों और नाथ पंथी योगियों के पदादि से उनका सीधा सम्बन्ध है । ' वे संतों को सौ फीसदी भारतीय परम्परा में सम्बद्ध मानते हैं। उनमें भक्ति का रस और वेदान्त का ज्ञान है।' ___"सारांश यह है कि धार्मिक दृष्टि से हिन्दू धर्म की विकृतियों और सामान्य धर्म के तत्त्व, आचार, तप, ज्ञान, वैराग्य, सत्य, आस्तिकता आदि के अतिरिक्त बौद्धधर्म की कर्मकाण्ड विरोधी. प्रवृत्ति, नाथ सम्प्रदाय का आत्मानुभव, विठ्ठल सम्प्रदाय की प्रेमपूर्ण भक्ति, जातीय बन्धन की शिथिलता, स्वामी रामानन्द का उदार दृष्टिकाण एवं सूफी मत की रहस्यवादी मादकता सन्त साहित्य की प्रमुख सृजन प्रेरणाएँ हैं ।
(च) सन्त काव्य : साहित्य असाहित्य का निर्णय
काव्य या साहित्य के लक्षण, प्रयोजन, साधन आदि के बारे में भारतीय एवं पाश्चात्य अनेक विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। डॉ. भागीरथ मिश्र ने लिखा है - "काव्य का स्वरूप बड़ा व्यापक है। जितना व्यापक है, उतना सूक्ष्म भी। अत: इसे लक्षण की परिधि में बाधना अत्यन्त कठिन कार्य है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम सन्त काव्य के स्वरूप, विषय वस्तु तथा अभिव्यक्ति शैली के बारे में विचार करेंगे। सन्त काव्य के बारे में कतिपय विद्वानों के विचार निम्नांकित है -
डॉ. रामकुमार वर्मा ने सन्त काव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है कि - "उत्तर भारत में मुसलमानी प्रभाव की प्रतिक्रिया के रूप में निराकार और अमूर्त
1. हिन्दी साहित्य-डॉ. धर्मवीर भारती पृष्ठ 322 से 335 2. हिन्दी साहित्य की भूमिका- हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 31 3. वही पृष्ठ 164 4, सन्त काव्य में परोक्ष सत्ता का स्वरूप-डॉ. बाबूराव जोशी पृष्ठ 44 5, काव्यशास्त्र-डॉ. भागीरथ मिश्र पृष्ठ 1