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कैद में फंसी है आत्मा
अकलंक देव ने लिखा है कि प्रथम व द्वितीय नरक में कापोत लेश्या होती है। तृतीय में ऊपर कापोत नीचे नील, चौथे में नील, पाँचवें में ऊपर नील नीचे कृष्ण, छठे में कृष्ण व सातवें में परम कृष्ण लेश्या पाई जाती है।
उन के मन में प्रखरता से वैर-विरोध पनपते रहता है जैसे धधकती हुई भट्ठी ही हो। तीव्र कषायों से परिणाम सदैव कलुषित होते रहते हैं। मन में सदा यही भावना चलती रहती है कि मैं दूसरे को कैसे मा? कैसे दुःख दूं? परिणाम अत्यन्त संक्लेषित बने रहते हैं।
आपसी मित्रता का तो वहाँ नाम ही नहीं है। सभी एक दूसरे के मात्र शत्रु हैं। यहाँ तक कि यहाँ के घनिष्ठ मित्र या परस्पर के प्रिय रिश्तेदार भी वहाँ जा कर परस्पर वैरी हो जाते हैं। परस्पर मार-काट की भावना भी उन के लिए अनन्त दुःख का कारण
है।
क्षेत्रज दुःख - जब पाप कर्म का उदय होता है, तब संसार के सारे पदार्थ प्रतिकूल बन जाते हैं। शांति के लिए किए गए कार्य अग्नि में घी फेंकने जैसे सिद्ध होते हैं। ___ वहां की भूमि अत्यन्त जहरीली है। भूमि के स्पर्श से ऐसा दुःख होता है कि उस के आगे हजारों बिच्छू एक साथ काट खाएं तो भी वह दर्द नरक भू के स्पर्श के द्वारा प्राप्त कष्ट से तुच्छ है। उन नरक के बिलों में कुत्ता, बिल्ली, ऊँट आदि के सड़े-गले शरीर की दुर्गंध की अमेक्षा अधिक दुर्गंध है। नरक में कुल 49 पटल हैं। पहले पटल की मिट्टी यहाँ ला कर रख दी जाए तो उस की दुर्गन्ध व जहरीले पन के कारण आधा कोस के भीतर रहने वाले समस्त जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाएं। यह जहरीला पन व घातक पना प्रति पटल आधा-आधा कोस बढ़ते जाता है, सप्तम नरक के पटल की मिट्टी का जहरीला पन इतना तीव्र है कि साढ़े चौबीस कोस तक का क्षेत्र निर्जन्तुक बना
दे।
पहले नरक में 30 लाख, दूसरे में 25 लाख, तीसरे में 15 लाख, चौथे में 10 लाख, पाँचने में 3 लाख, छठे में 5 कम एक लाख व सातवें में 5 बिल होते हैं। इस तरह कुल 84 लाख बिल नरक में हैं। उन में से 82 लाख बिलों में उष्णवेदना है व अंतिम 2 लाख बिलों में शीतवेदना है। एक लाख चालीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत
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