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________________ ** जिनसहस्रनाम टीका - ४५ * प्रभवः = प्रभवत्यस्मादश: प्रभवः अच् अथवा प्रकृष्टो भवो जन्म यस्येति प्रभवः। जिनसे वंश उत्पन्न हुआ, आदिनाथ भगवान से इक्ष्वाकु वंश उत्पन्न हुआ तथा उन्होंने कुरुनाथ आदि वंशों की स्थापना की, या प्रकृष्ट-उत्कृष्ट है भव या जन्म जिनका उन्हें प्रभव कहते हैं। वा मोक्षप्राप्ति का कारण होने से आप प्रभव हैं। विभवः = विभवत्यनेन विगमो संसारस्य भवस्य स विभवः विशिष्टो भवो जन्म यस्य स विभवः = जिन्होंने भव का संसार का नाश किया ऐसे जिनराज विभव हैं, अथवा विशिष्ट भव जन्म है जिनका, तीर्थकरपद विशेष से युक्त भव जन्म होने से वे विभव हैं। अथवा 'वि' विगत 'भव' उत्पत्ति है अर्थात अब आप जन्म धारण नहीं करेंगे। भास्वान् = भा केवलज्ञानलक्षणा दीप्तिर्यस्य स भास्वान् = 'भा' आभा केवलज्ञान लक्षण जिसका ऐसी दीप्ति जिनकी वे भगवान भास्वान् हैं। वा प्रकाशमान होने से आप भास्वान् हैं। भवः = भवति अस्तीति भव्यप्राणिनां हृदये स भवः अच् = जो भव्य प्राणियों के हृदय में सदा रहते हैं ऐसे प्रभु भव हैं। अथवा आप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने से भव हैं। भावः = भवति विद्यते महामुनीनामपि मानसे भावः वा ज्वलादि दुनी भुवो णः। जो महामुनियों के चित्त में निरंतर स्थिर रहता है अत: भाव: है अथवा - ज्वलादि दुनी में 'भुव' ण प्रत्यय होता है। जो होता है, उसे भाव कहते हैं। चैतन्य मात्र में लीन रहने से आप भाव भवान्तकः = भवस्य संसारस्य अन्तक: विनाशक: भक्तानां भवान्तक: - भक्तों के संसार का विनाश करने वाले होने से प्रभु भवान्तक कहे जाते हैं। वा स्वकीयसंसार-परिभ्रमण का नाश करने से आप भवान्तक हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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