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________________ * जिनसहस्रनाम टीका ९ मद्रय = मत्स्यपुराण, मार्कण्डेयपुराण, भद्रय = भागवतपुराण, भविष्योत्तरपुराण, वत्रय = ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, वाचतुष्टय= विष्णुपुराण, वराहपुराण, वामनपुराण, वायुपुराण । अनापक्रूस्कलिंगानि = अग्निपुराण, नारदीयपुराण, पद्मपुराण, कूम्र्म्मपुराण, स्कंदपुराण, लिंगपुराण, गए ये परमत हैं और जिनेन्द्र भगवान स्वरमय तथा परसमय दोनों ही विद्याओं के ईश हैं इसलिए इन्हें विश्वविद्येश कहते हैं । ; विश्वयोनि = विश्वस्य समस्तपदार्थस्य योनिः उत्पत्तिस्थानं कारणं वा विश्वयोनिः = प्रभु समस्त पदार्थों के उत्पादक अर्थात् प्ररूपक उत्पत्तिस्थान हैं अतः विश्वयोनि कहलाते हैं । अनश्वरः = णश् अदर्शने णशो नः । नश्यति इत्येवंशीलो नश्वरः 'सृजीग्नशां क्वरप्' । न नश्वर: अनश्वर: अविनाशक: इत्यर्थ: । जिनेश्वर अविनाशी हैं उनका शुद्ध ज्ञान दर्शनादिगुण का स्वरूप कभी भी नष्ट नहीं होता अतः वे अनश्वर अविनाशी हैं। विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचनः । विश्वव्यापी विधुर्वेधाः शाश्वतो विश्वतोमुखः ॥ ४ ॥ = विश्वदृश्वा = विश्वं दृष्टवान् इति विश्वदृश्वा सर्व जगत् को जिनेश्वर अपने केवलज्ञान से जाना देखा है, इसलिए उन्हें विश्वदृश्वा कहते हैं। विभुः = विभवति विशेषेण मंगलं करोति, वृद्धिं विदधाति समवसरण सभायां प्रभुतया निविशति, केवलज्ञानेन चराचरं जगद्व्याप्नोति, सम्पदं ददाति, जगत्तारयामीति अभिप्रायं वैराग्यकाले करोति, तारयितुं शक्नोति, तारयितुं प्रादुर्भवति, एकेन समयेन लोकालोकं गच्छति जानातीति विभुः = प्रभु भक्तों का विशेष प्रकार से मंगल करते हैं। गुणों की वृद्धि करते हैं, समवसरण सभा में प्रभुत्व से रहते हैं, केवलज्ञान से चराचर जगत् को व्याप्त करते हैं, सम्पदा देते हैं, सर्वजगत् को संसार सागर से तारूं ऐसा वैराग्य काल में मन में धारण करते हैं, तारने के लिए सामर्थ्य रखते हैं, तारने के लिए ही प्रकट होते हैं, एक ही समय में लोक तथा अलोक में जाते हैं अर्थात् लोक अलोक को जानते हैं। धाता = दधाति चतुर्गतिषु पतन्तं जीवमुद्धृत्य मोक्षपदे स्थापयतीति धाता | = नरकादि चारों गतियों में पड़नेवाले प्राणियों को उन गतियों से निकालकर
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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