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________________ जिनसहस्रनाम टीका - २२२ त्वमेकः पुरुषस्कन्धस्त्वं द्वे लोकस्य लोचने । त्वं त्रिधाबुद्धसन्मार्गस्त्रिज्ञस्त्रिज्ञानधारक: ।। ११ ।। टीका - हे नाथ ! त्वं भवान् एकः ज्ञानावरणाद्यष्टकर्महननक्रियायामेकः असहायः, पुरुषस्कन्धः त्वं पुरुषाणां पुंसां स्कन्धः ग्रीवाधौरेय इत्यर्थः । त्वं भवान् त्रिलोकस्य त्रिभुवनस्य द्वे लोचने । त्वं भवान् त्रिधा बुद्धसन्मार्ग: त्रिधा त्रिप्रकारेण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूपेण बुद्धो ज्ञातः सन्मार्गो मोक्षमार्गः । त्वं भवान् त्रिज्ञः त्रयमतीतानागत- वर्तमानं जानातीति त्रिज्ञः । त्वं भवान् विज्ञानधारत: विज्ञानं मतिश्रुतावधिं धारयतीति त्रिज्ञानधारकः ॥ ११ ॥ अर्थ : हे नाथ! आप ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के नाश करने की क्रिया में अकेले थे, असहाय थे, अतः एक हैं अथवा जगत् में आप 'एक' अद्वितीय हैं आपके समान दूसरा कोई नहीं है अतः एक हैं । हे भगवन् ! आप पुरुषों ( आत्माओं ) में स्कन्ध (ग्रीवा के समान महान्) होने से पुरुष स्कन्ध हैं। अथवा पुरुषों में श्रेष्ठ केवल आप ही हैं हे भगवन् ! आप लोक (तीन लोक) के दो लोचन (नेत्र) हैं अर्थात् संसार के पदार्थों को समग्र रूप से जानने के कारणभूत व्यवहार और निश्चय नय का कथन करने वाले होने से आप ही दो नेत्र हैं। आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र रूप त्रिविध सन्मार्ग को जाना है अतः विज्ञ हैं। तीन लोक और भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान रूप तीन काल को जानने वाले ज्ञान के धारण करने वाले होने से त्रिज्ञानधारक हैं ॥। ११ ॥ चतुःशरणमांगल्यमूर्त्तिस्त्वं चतुरस्रधीः । पंचब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनीहि माम् ॥ १२ ॥ टीका - त्वं चतु: शरणमात्रल्यमूर्त्तिः चतुःशरणानि अर्हच्छरणसिद्धशरण साधुशरण केवलिप्रज्ञप्त धर्मशरणानि मात्रल्यानि अर्हत्सिद्ध साधु केवलि - प्रज्ञप्त धर्म माङ्गल्यानि तान्येव मूर्तिः शरीरं चतुः शरणमात्रल्यमूर्तिः । त्वं चतुरस्रधीः । त्वं पंचब्रह्ममयः पंचब्रह्मभिर्निवृत्तो निष्पन्न: पंचब्रह्ममयः पंचपरमेष्ठिस्वरूप इत्यर्थः । त्वं देव ! परमाराध्यः त्वं पावनः पवित्रः हे देव मां स्तुतिकर्त्तारं श्रीजिनसेनाचार्यं देवेंद्र वा पुनीहि पवित्रीकुरु ॥ १२ ॥
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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