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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २२१ . टीका - हे नाभिज भवान् शिवः कथ्यते न तु रुद्रः शिवः कस्मात् शिवपदाध्यासात् शिवस्य मोक्षस्य पदं स्थान शिवपदं तत्राध्यासात् निवसनादिति । हे नाथ! भवान् हरः प्रतिपाद्यते न तु रुद्रः । कथंभूतः भवान् हर: दुरितारिहर:दुरितारि हरतीति निराकरोतीति दुरितारिहरः एतद्गुणो न तस्य वरीवर्तते। शंकरः हे स्वामिन् त्वं शंकर न तु रुद्रो नाम शंकरः । कृतं विहितं शं सुखं लोके त्रैलोक्ये अतस्त्वं शंकर; त्वं शंभवः नत्वन्यः कथंभूतः भवत्सुखः भवत्संजायमानं सुखं परमानन्दलक्षणं यस्य स भवत्सुखः ॥९॥ अर्थ : हे भगवन् ! शिव (मोक्ष) पद (स्थान) में निवास करने से शिव कहलाते हैं। पापरूपी शत्रुओं का क्षय करने वाले होने से आप 'हर' कहलाते हैं। यह गुण जिसमें नहीं है वह 'हर' नहीं हो सकता। तीन लोक में शं (सुख) करने वाले होने से शंकर कहलाते हैं, आप सच्चे सुख में निमग्न रहते हैं। (भवत्सुखं) उत्पन्न हुआ है परमानन्द लक्षण सुख जिसको वे भवत्सुख कहलाते हैं। अतः आपको शंभव कहते हैं।९॥ वृषभोऽसि जगज्येष्ठः पुरुः पुरुगुणोदयैः।। नाभेयो नाभिसंभूतेरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः ॥१०॥ टीका- वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठः जगत्सुप्राणिवर्गेषु ज्येष्ठः वरिष्ठ: अतस्त्वं वृषभोऽसि भवसि । पुरुः पुरुगुणोदयैः पुरुगुणानां प्रचुरगुणानां उदयैः प्रादुर्भावैः पुरुस्त्वमसि भवसि। नाभेयो नाभिसंभूतेः संभवनं संभूतिः प्रादुर्भावः । नाभेश्चतुर्दशकुलकरस्य संभूतिः तस्मात् सकाशात् प्रादुर्भावात् नाभेयः नाभेरपत्यं पुमान् नाभेयः । इक्ष्वाकुकुलनंदन: इक्ष्वाकुकुलं नंदयतीति इक्ष्वाकुकुलनन्दनः ॥१०॥ अर्थ : संसारके सर्व प्राणियों में आप श्रेष्ठ हैं अत: आप वृषभ हैं। महान गुरु के प्रचुर गुणों के उदय का स्थान होने से आप पुरु हैं अर्थात् अत्यधिक गुणों का प्रादुर्भाव आपमें है अतः आप पुरु हैं। चौदहवें कुलकर नाभिराजा के पुत्र होने से आप नाभेय हैं। इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न होने से आप इक्ष्वाकुकुलनन्दन हैं॥१०॥
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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