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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २०८ ** त्रिलोचन:= त्रिषु कालेषु लोचने केवलज्ञानदर्शने नेत्रे द्वे यस्य स त्रिलोचन: त्रिकाल - विषयार्थावबोधी इत्यर्थः= भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल के सम्पूर्ण जीवादि पदार्थ देखने के लिए केवलज्ञान तथा केवलदर्शन रूप दो नेत्रों को प्रभु ने धारण किया अतः त्रिलोचन नाम को सार्थक किया। त्रिनेत्र:= त्रीणि नेत्राणि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि यस्येति त्रिनेत्र:= सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूपी तीन नेत्रों को प्रभु ने धारण किया त्र्यम्बक:= त्रयाणां लोकानां अम्बकः पिता इति त्र्यंबकः, अथवा त्रीणि अम्बकानि अक्षाणि यस्येति त्र्यंबक:= प्रभु तीन लोक के अम्पक अर्थात पिता हैं। अथवा तीन चक्षु के धारक हैं, दो चक्षु द्रव्येन्द्रिय हैं और एक केवलज्ञान चक्षु है अतः तीन चक्षु के धारक होने से त्र्यम्बक हैं। त्र्यक्ष: = त्रयोऽक्षाः आत्मनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि यस्येति त्र्यक्ष: तथानेकार्थे अक्षो स्थस्यावयवे व्यवहारे विभीतके। पाशके शकटे वर्षे ज्ञाने चात्मनि रावणे॥ तीन अक्ष अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन जिनके मोक्षरथ के चक्र हैं ऐसे प्रभु त्र्यक्ष नाम को चरितार्थ करते हैं। अक्ष शब्द के-रथ का अवयव (चक्र) व्यवहार, हरड़, पाशा, गाड़ी, वर्ष, ज्ञान, आत्मा और रावण अनेक अर्थ हैं। केवलज्ञानवीक्षण:= विशिष्टमीक्षणं लोचनं वीक्षणं केवलज्ञानं वीक्षणं लोचनं यस्येति केवलज्ञानवीक्षणः- प्रभु केवलज्ञान रूपी विशिष्ट नेत्र को धारण करते हैं। समन्तभद्रः शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधिः। सूक्ष्मदर्शी जितानङ्गः कृपालुधर्मदेशकः ।।१३।। शुभंयुः सुखसाद्भूत: पुण्यराशीरनामयः। धर्मपालो जगत्यालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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