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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २०९ . अर्थ : समन्तभद्र, शांतारि, धर्माचार्य, दयानिधि, सूक्ष्मदर्शी, जितानंग, कृपालु, धर्मदेशक, शुभंयु, सुखसाद्भुत, पुण्यराशि, अनामय, धर्मपाल, जगत्पाल, धर्मसाम्राज्यनायक, ये पन्द्रह नाम प्रभु के बिल्कुल उचित हैं, क्यों? सो आगे बताते हैं। टीका : समन्तभद्रः= समंतात सर्वत्र भद्रं कल्याण यस्य स समन्तभद्रः । अथवा समंतः सम्पूर्णस्वभावः भद्रं शुभं यस्य स समन्तभद्रः, सर्वत्र जिनका कल्याण ही है वे प्रभु समन्तभद्र हैं। अथवा जिनके संपूर्ण स्वभावों में कल्याण ही कल्याण भर गया है ऐसे प्रभु समन्तभद्र हैं। शांतारि:= शान्ता उपशमं गता अरयः शत्रवो यस्येति शांतारि:= प्रभु के कर्म शत्रु सब शान्त हो गये, अत: वे शान्तारि कहे गये हैं। धर्माचार्य:= धर्मेषु दशलक्षणेषु आचार्यः धर्माचार्यः गुरुरित्यर्थः उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्मों का उपदेश देने में प्रभु आचार्य हैं। दयानिधिः = दयाया: करुणायाः निधिः निवास: दयानिधिः= प्रभु करुणा, दया के निधि याने खजाना हैं, निवास स्थान हैं। सूक्ष्मदर्शी = सूक्ष्मं पदार्थं दृष्टुमवलोकयितुं शीलमस्यास्तीति सूक्ष्मदर्शी कुशाग्रीयमतिरित्यर्थः पाप-पुण्यादिक, कर्म-बन्धन के कर्म स्कंधादिक अत्यन्त सूक्ष्म हैं, तो भी उनको देखने में प्रभु अत्यन्त चतुर हैं। जितानङ्ग:- जितोऽनंगो मदनो येनेति जितानंग: प्रभु ने अनङ्ग (काम) को जीता अतः वे जितानङ्ग इस यथार्थ नाम को धारण करते हैं। कृपालुः= कृपा अस्यास्तीति कृपालुः, तद्धितो रूदितः सिद्धः= प्रभु कृपावन्त हैं, अतः कृपालु हैं। धर्मदेशकः= धर्मस्य देशक: कथक: धर्मदेशक:- श्रावक धर्म एवं मुनि धर्म का उपदेश प्रभु ने भव्यों को दिया है। शुभंयुः= शुभमस्यास्तीति शुभंयुः 'अहं शुभयोर्युस्' सुखाधीन इत्यर्थः= जो शुभ से युक्त होने से शुभंयु हैं, स्वात्मीय सुखके आधीन होने से भी शुभंयु
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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