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________________ * जिनसहस्रनाम टीका २०७ * - कर्मठ : = कर्माणि घटते इति कर्मठः, 'कर्मणि घटोठश्च कर्मशूरस्तु कर्मठ: ।' अमरकोशः - आत्मा को संसार के दुखों से उठाकर मोक्षसुख में स्थापन करने का शौर्य प्रभु ने किया। अतः कर्मठ नाम को धारण किया है। वा समर्थ होने से कर्मठ हैं। प्रांशुः = प्राप्नुते इति प्रांशुः उन्नत इत्यर्थः प्रांशुत्वमुन्नतं तुंगमुदग्रं दीर्घमायुतम्।' इति हलायुधे भगवान देह से, मन से और कृति से उन्नत थे । अतः उनको प्रांशु कहना योग्य ही था । = * हेयादेयविचक्षण: = ओहाक् त्यागे हीयते हेयं डुदाञ् दाने आदीयते आदेय आत्खनोरिच्च चक्षञ् ख्याञ् वि पूर्वं विविधं चष्टे इति विचक्षणः नद्यादेर्युः युवुलामनाकान्ताः । णत्वं विचक्षणो विद्वान् इत्यनेन विचक्षणः इति निपात: निपातस्य फलं ख्या आदेशो न भवति हेये आदेये च विचक्षणो विद्वान् हेयादेयविचक्षण: = ओहाकू धातु त्याग अर्थ में है अतः जो छोड़ा जाता है उसे हेय ( छोड़ने योग्य) कहते हैं। डुदाञ् धातु ग्रहण करने में, आ उपसर्ग है, चारों तरफ से ग्रहण किया जाता है उसको आदेय कहते हैं। चक्षत्र धातु बोलने अर्थ में हैं, वि उपसर्ग है, विशिष्ट विविध बोलते हैं, विचारपूर्वक बोलते हैं उसको विचक्षण कहते हैं, हेयोपादेय में विचक्षण चतुर है उसको हेयोपादेयविचक्षण कहते हैं । अनन्तशक्तिः = अनंता निःसीमा शक्तयोऽर्थक्रियाकारिसामर्थ्यानि यस्य स अनन्तशक्तिः - प्रभु में अनन्त सीमारहित ऐसी शक्तियाँ हैं, जिनसे उन्होंने केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त किया है। अच्छेद्यः = छेत्तुं न शक्यो अच्छेद्य:- जिसका छेदन-भेदन नहीं हो सकता ऐसे स्वरूप को धारण करने वाले प्रभु अच्छे हैं। त्रिपुरारिः = तिसृणां पुरां जन्मजरामरणलक्षणानां नगराणामरिः शत्रुः त्रिपुरारि: जन्मजरामरणत्रिपुरहर इत्यर्थ:- जन्म, जरा, मरण रूप तीन नगरों के प्रभु वैरी थे। इन तीन नगरों को नष्ट कर वे मुक्त हुए । इसलिए उनको त्रिपुरारि कहते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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