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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २०६१ भद्र:= शूद्रादयः शुद्रोग्रवज्रविप्रभद्रगौरभैरारा:- शुद्ध धातु अग्र, वज्र, विप्र, भद्र, गौ, भेरी आदि अनेक अर्थ में है। स्वयं भगवान् कल्याण रूप, ज्ञानरूप हैं अतः भद्र हैं। कल्पवक्षः= कल्पो ध्यानं तत्र फलदो वृक्ष: कल्पवृक्षः= कल्प ध्यानप्रभु के स्वरूप-चिन्तन में जो भक्तों की एकाग्रता होती है उसे कल्प कहते हैं। वह कल्प ही स्वर्गमुक्ति फलों को देने वाला वृक्ष है। अतः भगवान को कल्पवृक्ष कहते हैं। भक्त प्रभु की भक्ति के प्रसाद से इच्छित फल को प्राप्त करते हैं अतः कल्पवृक्ष हैं। वरप्रदः- वरमभीष्टं स्वर्ग मोक्षं च प्रददाति इति वरप्रदः= वर अभीष्ट ऐसे स्वर्ग मोक्ष को भगवान देते हैं। अतः वे वरप्रद हैं। समुन्मूलितकारिः कर्मकाष्ठाशुशुक्षणिः। कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुहेयादेयविचक्षणः ।।११।। अनन्तशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारिस्त्रिलोचनः । त्रिनेत्रस्त्र्यंबकस्त्र्यक्ष: केवलज्ञानवीक्षणः ।।१२।। अर्थ : समुन्मूलितकर्मारि, कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि, कर्मण्य, कर्मठ, प्रांशु, हेयादेय, विचक्षण, अनन्तशक्ति, अच्छेद्य, त्रिपुरारि, त्रिलोचन, त्रिनेत्र, त्र्यम्बक, त्र्यक्ष, केवलज्ञानवीक्षण ये १४ नाम प्रभु के सार्थक हैं, जो इस प्रकार हैं टीका - समुन्मूलितकर्मारिः= सन्मूलित: समूलकाषं कषित: कर्मारि: कर्मशत्रुर्थेनेति - समुन्मूलित कर्मारि:= आदि भगवन्त ने ज्ञानावरणादि आठ कर्मशत्रुओं को मूल से उखाड़कर फेंक दिया। अत: वे इस नाम को प्राप्त हुए। कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि:- शुष्ष् शोषे आशु शोषे, आशुपूर्व: आशु शोषयति रसानिति, आशु शुष्यति अस्मादिति वा आशुशुक्षणि: कर्मकाष्ठ-दाहक इत्यर्थःशुष् और आशु धातु शोषण अर्थ में, जलाने अर्थ में है। कर्मरूपी काष्ठ को दहन हेतु अग्नि तुल्य होने से कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि हैं। कर्म काष्ठ के दाहक हैं। कर्मण्य:= कर्मों का नाश करके सर्वभव्यों को मोक्षमार्ग को दिखाने का कार्य करने में प्रभु सर्वथा योग्य थे अतः कर्मण्य थे वा कर्मशील होने से कर्मण्य हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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