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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १९९ * अर्थात् द्रव्यमल, भावमल और नो कर्म मल के घातक होने से मलघ्न कहलाते हैं। मूलकारण:- मूलं रोहणे मूलयति मूलं - 'नाम्युपधाप्रीकृगृज्ञां कः', मूलस्य आरोहणस्य प्रादुर्भावस्य सृष्टेर्वा कारणं निदान हेतुरिति यावद् मूलकारणं = मूल (मोक्ष, सिद्धपद उसके आरोहण) का कारण होने से वा मोक्षमहल के आरोहण का मूल कारण होने से मूल कारण हैं। आप्तः= आप्यते स्म आप्तः आप्तस्येदं लक्षणं यशस्तिलकमहाकाव्ये श्रीसोमदेवसूरिणाप्युक्तम् क्षुत्पिपासा भयं द्वेषश्चिंतनं मूढतागमः। रोगो जरा रुजा मृत्युः क्रोध: स्वेदो मदो रतिः ।। विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादशधूवा: । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे॥ एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोयमाप्तो जिनेश्वरः। स एव हेतुः सूक्तीनां केवलज्ञानलोचनः॥ तथा चोक्तम् - यस्यात्मनि श्रुते तत्त्वे चरित्रे मुक्तिकारणे। एकवाक्यतया वृत्तिराप्तः सोऽनुमतः सताम् ।। जीवादि तत्त्वों को जानने की इच्छा से तथा संसार-दुःखों का नाश करने की इच्छा से, तथा अनन्त सुखरूपी अमृत जहाँ प्राप्त होता है ऐसे मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा से विद्वान् लोक जिसको प्राप्त कर लेते हैं ऐसे अर्हत्परमेष्ठी को आप्त कहते हैं। इस अभिप्राय का श्लोक इहाप्यते तत्त्वबुभुत्सया भवभ्रमोत्थदुखापानिनीषयाबुधैः। अनन्तसौख्यामृत मोक्षलिप्सया निरुच्यतेऽन्वर्थतयाप्तइत्यसौ॥ श्री सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक में आप्त का जो लक्षण कहा है वह इस प्रकार है
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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