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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १९८ * वाग्भटाचार्येण वाग्भदालंकारेऽप्युक्रान् सम्य-ज्ञानमुत्वानं शांती निःस्पृहायकः । रागद्वेषपरित्यागात् सम्यग्ज्ञानस्य चोद्भवः ॥ शान्तरस के नर्तक प्रभु हैं । वाग्भटालंकार में शान्तरस का स्वरूप ऐसा है। इस शान्तरस में सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है, शान्तरस में रागद्वेष का त्याग होने से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है तथा इसके नायक मुनिराज अत्यन्त निःस्पृहता के आदर्श होते हैं। भव्यपेटकनायक: = भव्यानां रत्नत्रययोग्यानां पेटकानि समूहाः भव्यपेटकानि, भव्यपेटकानां नायकः स्वामी भव्यपेटकनायकः = रत्नत्रय की प्राप्ति होने योग्य जीवों को भव्य कहते हैं। उनका समूह पेटक कहलाता है। प्रभु भयों के पेटकों के अर्थात् समूहों के नायक स्वामी हैं। अतः भव्यपेटकनायक कहलाते मूलकर्त्ता = मूलप्रतिष्ठायां मूलति मूल्यते प्रतिष्ठाप्यते मूलं 'अकर्त्तरि च कारके संज्ञायां घञ्' मूलं निदानं आदिकारणं करोतीति मूलकर्त्ता । मूल (जिसका आदि अन्त नहीं है, ऐसे अनादिनिधन जैनधर्म के कर्त्ता होने से मूल कर्ता कहलाते हैं । ) अखिलज्योतिः = अखिले लोके ज्योतिः केवलदर्शनलक्षणं लोचनं यस्येति स अखिल - ज्योतिः संपूर्ण लोक को प्रभु का केवलदर्शन रूप नेत्र देखता है। अतः वे अखिलज्योति हैं । वा सारे जगत् के प्रकाशक होने से आप अखिलज्योति हैं । मलघ्न: = मलान् हंतीति मलघ्नः, यत्स्मृति - - वसाशुक्रमसृक्मज्जा मूत्रं विट् कर्णविट् नखः । श्लेष्माश्रुदूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः ॥ अथवा मलान् तषोमलान् मायामिथ्यात्वनिदानानि हंतीति मलघ्न:- प्रभु ने बसा, शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, विष्टा, कर्णमल, नखमल, अश्रुमल, श्लेष्मा, दूषिका और स्वेद इन मलों का नाश किया क्योंकि प्रभु का शरीर परमौदारिक था । उसमें ये मल नहीं थे । अथवा माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन तपोमल भी नहीं हैं अतः आप मलघ्न कहे जाते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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