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________________ * जिनसहस्रनाम टीका १६१ प्रभु का सु-उत्तम, भग- ज्ञान, माहात्म्य तथा यश है। अतः वे सुभग हैं । भग शब्द के अनेक अर्थ हैं- यथा सूर्य, ज्ञान, माहात्म्य, यश, वैराग्य, मुक्ति, रूप-सौंदर्य, वीर्य, प्रयत्न, इच्छा, श्री, धर्म, ऐश्वर्य और योनि ऐसे पन्द्रह अर्थ हैं। उत्तम ज्ञान, यश, माहात्म्य, सौन्दर्य, ऐश्वर्य आदि हैं अतः सुभग हैं। I त्यागी = त्यागो दानं तत् त्रिविधमाहारदानमभयदानं ज्ञानदानं च । त्यागो विद्यतेऽस्येति त्यागी = त्याग दान वह तीन प्रकार का है आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान । तीन प्रकार के त्याग को करने वाले भगवान त्यागी हैं। पर - परिणति (विभावभावों) के त्याग करने से आप त्यागी हैं। समयज्ञः समयं कालं सिद्धान्तं जानातीति समयज्ञ: समय, काल तथा सिद्धान्त का वाचक है। अर्थात् अनादि अनिधन काल और उसका परिवर्तन जिनके ऊपर होता है ऐसे पदार्थों को, जैन सिद्धान्तों को जानने वाले प्रभु समयज्ञ हैं। वा समय आत्मा के ज्ञाता होने से समयज्ञ हैं । - समाहित: = 'डुधाञ् डुमञ् धारणपोषणयो:' समादधाति समाधत्ते स्म वा समाहितः दधातेर्हि समाधानं प्राप्त इत्यर्थः । तथानेकार्थे समाहितः समाधिस्थे संश्रुतप्रतिज्ञातः = - डुधाञ् डुमञ् धातु धारण-पोषण अर्थ में है । अतः 'सम' उपसर्ग करके समादधाति, समाधत्ते स्म वा समाहित है। निरंतर समाधिस्थ रहते हैं, सदा अपने में लीन रहते हैं, सावधान रहते हैं, अतः समाहित हैं। सुस्थित: स्वास्थ्यभाक् स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धवः । अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृहः ॥७ ॥ वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा निःसपत्नो जितेन्द्रियः । प्रशान्तोऽनन्तधामर्षिर्मङ्गलं मलहाऽनघः ॥ १८ ॥ अर्थ : सुस्थित, स्वास्थ्यभाक्, स्वस्थ, नीरजस्क, निरुद्धव, अलेप, निष्कलङ्कात्मा, वीतराग, गतस्पृह, वश्येन्द्रिय, विमुक्तात्मा, निःसपत्न, जितेन्द्रिय, प्रशान्त, अनन्त - धामर्षि, मंगल, मलहा, अनघ, ये अठारह नाम प्रभु के सार्थक हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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