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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १६२ * टीका - सुस्थितः - ‘ष्ठा गतिनिवृत्तौ', सुस्थीयते स्म सुस्थित: क्लद्यति स्था भास्थात्यगुणे सुखी इत्यय: 'ष्ठा' धातु गतिनिवृत्ति अर्थ में है, जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हुए हैं जिससे पुन: आगमन नहीं है अतः सुस्थित हैं। सुख में अतिशय स्थिर हुए प्रभु को सुस्थित कहते हैं। अर्थात् घातिकर्म के विनाश से अनन्तसुख में प्रभु स्थिर हुए हैं। अतः सुस्थित हैं। वा सम्यक् रूप से अपने चैतन्य भाव में लीन होने से सुस्थित हैं। स्वास्थ्यभाक् = स्वस्थस्य भावः स्वास्थ्य स्वास्थ्यं चेतोनिरोधः तं भजते स्वास्थ्यभाक् ‘भजोविण्', परपदार्थों से मन को हटाकर अपने शुद्ध स्वरूप में प्रभु पूर्णतया स्थिर हुए हैं। अत: वे स्वास्थ्यभाक् हैं। वा कर्मरोगरहित होने से स्वास्थ्यभार हैं। स्वस्थः = स्वे आत्मनि तिष्ठतीति स्वस्थः 'नाम्निश्च कः' 'अलोप; सार्वधातुके', प्रभु अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप में सदा स्थिर हैं अतः स्वस्थ नीरजस्कः = निर्गत विनष्टं रजो ज्ञानदर्शनावरणद्वयं यस्येति नीरजस्क:ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म को रज कहते हैं। ये रजरूप दो कर्म प्रभु से सर्वथा अलग हुए। अत: प्रभु नीरजस्क रजरहित हुए हैं। कर्मरजरहित होनेसे नीरजस्क हैं। निरुद्धवः - उत्कृष्टो हव उद्धवः उद्धवात् अध्वरात् निष्क्रान्तो निरुद्धवः यज्ञरहित; इत्यर्थः तथानेकार्थे - 'उद्धवः केशवमातुले उत्सवे ऋतुवह्नौ च' = अर्थ: उत्कृष्ट हव (यज्ञ) उद्धव कहलाता है। उद्धव (यज्ञ) से रहित होने से निरुद्धव कहलाते हैं। अथवा - उद्धव - केशव (नारायण), मामा, उत्सव, ऋतु और अग्नि अर्थ में आता है। भगवान सांसारिक उत्सवों से ऋतुओं से क्रोध अग्नि से रहित होने से निरुद्धव हैं। अलेपः = लेपः पापकर्ममलकलंकः, न लेपो यस्येति अलेपः= लेप से, पापकर्ममल कलंक से प्रभु रहित थे। अत: वे अलेप हैं। कर्मरूप लेप से रहित
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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