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श्री जिनसहस्रनाम टीका- १६० *
चक्ररूपी हथियार को धारण करने से आप धर्मचक्रायुध हैं।
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देव: = 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युति- कांति-गतिषु' दीव्यति क्रीडति परमानंद - पदे देवः अच् दिव् धातु से देव शब्द बनता है, क्रीड़ा करना दिव् धातु का अर्थ है । अर्थात् परमानन्द पद में मुक्तिसुख में प्रभु क्रीड़ा करते हैं इसलिए देव हैं।
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कर्महा = कर्म शुभाशुभं हतवान् कर्म्महा 'क्विप् ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु' = शुभाशुभ कर्म को अर्थात् पापपुण्य कर्मों को प्रभु ने नष्ट किया है अतः कर्महा हैं। 'हन्' धातु घात अर्थ में है, 'आ' प्रत्यय होकर 'हा' बनता है।
धर्म्मघोषण: = धर्म्म: अहिंसादि: स एव घोषणं दुन्दुभिर्यस्य धर्म्मघोषण:प्रभु अहिंसा धर्म की दुन्दुभि हैं अर्थात् प्रभु ने अहिंसा धर्म की सर्वत्र घोषणा की है। अतः प्रभु धर्मघोषण हैं।
अमोघवाक् = अमोघा सफला वाक् यस्य स अमोघवाक् प्रभु की दिव्यध्वनि ने असंख्य प्राणियों को हितमार्ग में लगाया है।
अमोघाज्ञः = अमोघा सफला आज्ञा वाक् यस्य स अमोघाज्ञः = प्रभु वाणी सफल है, अतः अमोघाज्ञ हैं ।
की आज्ञा
निर्मम: = निर्गता ममता अस्मादिति निर्मम: = प्रभु की आत्मा से ममता रागद्वेष नष्ट हो गये हैं। अतः वे निर्मम हैं ।
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अमोघशासनः = अमोघं अनिष्फलं शासनं कथनं यस्य स अमोघशासन: अमोध याने अनिष्फल, सफल शासन उपदेश जिनका, ऐसे प्रभु अमोघशासन ।
सुरूपः = सुष्ठु शोभनं रूपं सौंदर्यं यस्यासौ सुरूप :- प्रभु शोभन सुन्दर सौंदर्य के धारक हैं।
सुभग: = सुष्ठु शोभनो भगो ज्ञानं माहात्म्यं यशो यस्येति सुभग:
तथानेकार्थे -
भगोऽर्क्कज्ञानमाहात्म्यं, यशोवैराग्यमुक्तिषु । रूप वीर्य प्रयत्नेच्छा श्री धर्मेश्वर्य योनिषु ।।