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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १३२ * कहते हैं। अथवा, प्रकृष्ट भक्तों के स्वामी होने से भगवान् प्रणतेश्वर कहलाते ! हैं। प्रमाणं = प्रमीयतेऽनेन प्रमाण = प्र. उत्कृष्ट, संशय, विपर्यय और विभ्रम रहित ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। अथवा 'प्र' उत्कृष्ट, ‘मा' अंतरंग (अनन्त चतुष्टय), बहिरंग (समवसरण की विभूति) 'आण' दिव्यध्वनि जिनकी है वे प्रमाण कहलाते हैं; यह विभूति हरि, हर आदि में नहीं है, आपमें ही है अतः आप प्रमाण हैं। प्रणिधि:= प्रकर्षण गुप्तोनिधीयते योगिभिरिति प्रणिधि: चार इत्यर्थः, 'अपसर्पचरश्चार:' प्रणिधिYढपूरुषः यथार्थवर्णोमंत्रज्ञः 'स्पर्शो हैरिक उच्यते' हलायुधनाममालायाम् = भगवान योगियों के लिए गुप्तचर रूप हैं। हलायुध नाममालामें प्रणिधि' का अर्थ गूढ पुरुष, यथार्थ वर्ण मंत्र का ज्ञाता, स्पर्श और हैरिक किया है। अत: सारे संसारियों की भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन भुक्त, विचारित, गूढ़ सारी बातें जानते हैं अतः प्रणिधि हैं। दक्षः = दक्षवृद्धौ शीघ्रार्थे च दक्षते कौशलं गच्छतीति दक्षः जिनदेव कौशलरूप हैं, शीघ्ररूप, शीघ्रमुक्त होने वाले हैं। दक्षिणः = दक्षिवृद्धौ-शीघ्रार्थे च दक्षते इति दक्षिणः ‘साहूहूत्रविद्रुदक्षिभ्यः इन् ?' तथानेकार्थे 'दक्षिणस्तु परच्छंदानुवर्तिनि दक्षे पसव्ये सरले प्राचीनेऽपि' = दक्षि धातु वृद्धि अर्थ में और शीघ्र अर्थ में है, व्याकरण में 'दक्ष्' आदि धातु में 'इन्' प्रत्यय होता है अतः दक्षिण शब्द निष्पन्न हुआ है। दक्षिण' परच्छंदों का अनुवर्तन करने वाला है, चातुर्य में है, सरल, प्राचीन आदि में निहित है अत: भगवान चतुर, सरल, प्राचीन तथा शीघ्र पदार्थों को ग्रहण करने वाले होने से दक्षिण हैं। ___ अध्ययुः अध्वर्युः = अध्वरं यातीति अध्वर्युः । उक्तं च - यशस्तिलकमहाकाव्ये - शोडशानामुदारात्मा यः प्रभुभविनविजाम् । सोध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोद्धरः॥
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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