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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १३१ * अर्थ : प्रणव, प्रणय, प्राण, प्राणद, प्रणतेश्वर, प्रमाण, प्रणिधि, दक्ष, दक्षिण, अध्वर्यु, अध्वर, ये ग्यारह नाम प्रभु के सार्थक हैं। टीका - प्रणवः = प्रणूयते प्रस्तूयतेऽनेन प्रणवः, अथवा णुस्तुतौ नवन नवः स्तुतिः प्रकृष्टो नवः स्तुतिर्यस्य स प्रणवः ॐकार इत्यर्थः । ॐकार: प्रणवः प्रोक्तः' इति हलायुध नाममालायां । ‘णु' धातु स्तुति और नमस्कार अर्थ में आती है, 'प्र' उपसर्ग है उत्कृष्ट अर्थ में अतः उत्कृष्ट स्तुति और नमस्कार के योग्य होने से पाव कहलाते हैं। साना उत्कृष्ट नमस्कार और स्तुति जिसकी है वह प्रणव कहलाता है। प्रणव 'ओंकार' को भी कहते हैं, ओंकार स्वरूप वाणी के वक्ता होनेसे प्रभु ‘प्रणव' कहलाते हैं। प्रणयः = प्रणयतीति प्रणयः, तथानेकार्थे - 'प्रणय: प्रेमयाञ्चयो: विसंभे प्रसरे चापि'; स्नेहल इत्यर्थः = 'प्रणय' धातु स्नेह अर्थ में आता है वा अनेक अर्थ में भी जाता है- जैसे प्रणय, प्रमेय, अञ्च् (पूजा), विसंभ (आश्चर्य), प्रसार, स्नेहल आदि अर्थ में प्रणय धातु है। प्रभु सर्व पर स्नेह करते हैं, दया करते हैं, दुःखों से निकालते हैं अतः प्रणय कहलाते हैं। प्राणः = प्राणिति प्रसरतीति प्राणः= जिनदेव भक्तों को प्राण रूप हैं, भक्तों के गुणों का प्रसार होने में कारण हैं। अथवा 'प्र' उत्कृष्ट ‘आण' शब्ददिव्यध्वनि जिनके है, वे प्राण कहलाते हैं। प्राणदः = प्राणान् बलानि ददाति इति प्राणदः । तथानेकार्थे - प्राणोऽनिले बले हृवायौ पूरिते गंधरसे = प्रभु भक्तों को प्राण बल देते हैं अत: वे अनन्त शक्ति के हेतुरूप हैं। अथवा - प्राण का अर्थ है वायु बल पूरित, गंध रस आदि । अतः प्राण, योग, वायु, बल, परिपूर्णता आदि के दाता होने से 'प्राणद' कहे जाते हैं। अर्थात् भगवान का स्मरण करने से मानसिक • वाचनिक, कायिक शक्ति प्राप्त होती है। प्रणतेश्वरः = प्रकर्षणानतानां नम्रीभूतानामीश्वरः स्वामी प्रणतेश्वर:= उत्कृष्ट रूप से झुके रहते हैं जो चरणों में जिसके उन स्वामी को प्रणतेश्वर
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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