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________________ * जिनसहस्रनाम टीका १३० - के उदय से भगवान भी प्रकृति कहे जाते हैं। अथवा धर्मोपदेश स्वभाव युक्त होने से जिनेश्वर को भी प्रकृति कहते हैं। परमः = परा उत्कृष्टा मा लक्ष्मीः यस्य स परमः । परा याने उत्कृष्ट मा लक्ष्मी जिनकी है वे परम हैं । परमोदयः = परम: सर्वोत्कृष्टः उदयोऽभ्युदयो यस्येति परमोदय: " उत्कृष्ट अभ्युदय से भगवान युक्त हैं अतः परमोदय हैं। प्रक्षीणबन्धः = प्रकर्षेण क्षीणः क्षयं गतो बन्धो यस्येति स प्रक्षीणबन्धः = भगवान के कर्मों का बन्ध अत्यंत क्षीण हुआ है। इसलिए वे प्रक्षीणबन्ध कहे जाते हैं । कामारिः = संकल्परमणीयस्य प्रीतिसंभोग शोभिन । रुचिरस्याभिलाषस्य नाम काम इति स्मृतिवचनात् । कामाय वमेष्टमाना धारादिहे तस्यारिः शत्रुः कामारि:= ये पंचेन्द्रियों के विषय संकल्प से रमणीय तथा प्रीति संभोग शोभन लगते हैं। प्रिय रुचिकर ज्ञात होते हैं। अत: स्मृतिवचन से स्त्रीपुरुष सम्बन्धी भोगों को काम कहते हैं। अथवा इच्छानुसार पाँचों इन्द्रियों को एक साथ तृप्त करने वाला होने से यह काम कहलाता है। इस काम के आप शत्रु हैं, घातक हैं अतः कामारि कहलाते हैं । क्षेमकृत् = क्षेमं मंगलं च लब्धरक्षणं कृतवान् क्षेमकृत् । तथानेकार्थे - 'क्षेमस्तु मंगले लब्धरक्षणे मोक्षे च' = भगवान सब जीवों का कल्याण करते हैं तथा मंगल करते हैं। या जो अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय भगवान को प्राप्त हुआ है उसका भगवान रक्षण करते हैं। अतः वे क्षेमकृत् हैं, मोक्ष को भी क्षेम कहते हैं। उसे भी भगवान ने पा लिया है। इसलिए क्षेमकृत् हैं । क्षेमशासन: = क्षेमं निरुपद्रवं शासनं शिक्षणमुपदेशो यस्य स क्षेमशासन:भगवान का शासन, शिक्षण निरुपद्रव अर्थात् उपद्रव से रहित है, कल्याण करने वाला है इसलिए प्रभु क्षेम - शासन कहे जाते हैं । प्रणवः प्रणयः प्राणः प्राणदः प्रणतेश्वरः । प्रमाणं प्रणधिर्दक्षो दक्षिणोऽध्वर्युरध्वरः ॥ ११ ॥ =
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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