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जिनसहस्रनाम टीका - १२९ - आत्मा = अत् सातत्यगमने अतति सततं गच्छति लोकालोकस्वरूपं जानातीति आत्मा, सर्वधातुभ्यो मन् घोषवत्योश्च कृति इट् निषेधः, वा अतति व्याप्नोति वा आदत्ते जगत्संहारकाले, अत्ति वा विषयान् जीव-रूपेणेत्यात्मायदाप्नोति यदादत्ते यच्चत्ति विषयानिह ।
यस्यास्ति संततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्तितः। तथा चोक्तं - भूतात्मा चेन्द्रियात्मा च प्रधानात्मा तथा पुमान्। आत्मा च परमात्मा च त्वमेक: पंचधा स्थितः॥
अत् धातु से आत्मा शब्द बना है। अत् धातु का अर्थ है सतत गमन करना । जो सतत गमन करता है अर्थात् सतत लोक तथा अलोक का स्वरूप जानता है उसे आत्मा कहते हैं, भगवान केवलज्ञान से सतत जानते हैं अतः वे आत्मा हैं। अथवा अत् धातु का अर्थ गमन करना है, व्याप्त करना है, जगत के संहार काल में ग्रहण करना है, खाना है अर्थात् विषयों को भोगना है। इसलिए जो निरंतर गमन करता है, उत्पाद, व्यय और प्रौव्य को प्राप्त है, ज्ञान के द्वारा सारे जगत् में व्याप्त है, अन्य मतों की अपेक्षा जगत्के संहार काल में जगत् को धारण करता है, पंचेन्द्रिय विषयों को भोगता है। निश्चय नय से अपने स्वरूप को भोगता है अतः आत्मा कहलाता है। कहा भी है
भूतात्मा, इन्द्रियात्मा, प्रधानात्मा, पुमान् और परमात्मा पाँच प्रकार से आत्मा का वर्णन किया है। इसमें भूतात्मा, इन्द्रियात्मा, बहिरात्मा हैं, प्रधानात्मा एवं पुमान् अन्तरात्मा हैं और परमात्मा, इन तीनों आत्माओं का वर्णन है। तथा इसमें जीवके नौ अधिकार भी गर्भित हैं।
प्रकृतिः = प्रकृष्टा त्रैलोक्यलोकहितकारिणी कृतिस्तीर्थप्रवर्त्तनं यस्य स प्रकृतिः, अथवा आविष्टलिंगमिदं नाम चेत् तदा प्रकृतिस्वभावात् भगवानपि प्रकृतिः, अथवा तीर्थंकरनामप्रकृति युक्तत्वात् प्रकृतिः अथवा प्रकृतिः स्वभावो धर्मोपदेशादि स्वभाव युक्तत्वात् प्रकृतिः। जिनेन्द्र की कृति याने क्रिया त्रिलोक तथा अलोक की प्रकृष्ट उत्कृष्ट हितकारिणी है, हितरूप तीर्थ की प्रवर्तना करती है अतः उन्हें प्रकृति कहते हैं। अथवा प्रकृति स्वभाव को कहते हैं और स्वभाव के सम्बन्ध से भगवान को भी प्रकृति कहा है। या तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति