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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १२८ कीचड़, दण्ड, दमन, दमथ, तीर्थ, शास्त्र, गुरु, यज्ञ, पुण्य, क्षेत्र, अवतार.. ऋषि, जुष्ट, जल, सत्रिणि, स्त्रीरज की योनि, पात्र, दर्शन आदि अनेक अर्थों में आता है। अत: 'दम' गुरु संसार से पार करने वाले होने से गुरु तीर्थ है और उनके स्वामी होने से भी आप दमतीर्थेश हैं। आदि और भी शब्द लगाना चाहिए। योगात्मा = योगोऽलब्धलाभ: आत्मा यस्येति योगात्मा तथा चोक्तं अनेकार्थे - योगो विश्रब्धधातिनि । अ नाने, गगां का सामुक्तिषु ॥ वपुः स्थैर्यप्रयोगे च संनाहे । भेषजे घने। विष्कंभादावुपाये च ।। अलब्ध का, शुद्ध आत्म-स्वरूप का, जो पूर्वभव में नहीं प्राप्त हुआ था उसकी प्राप्ति होना उसे योग कहते हैं। वही जिनका स्वरूप है ऐसे जिनदेव योगात्मा हैं। अथवा योग के अनेक अर्थ हैं- अलब्ध का लाभ, संगति, कार्माण (कमाँ का समूह), ध्यान, युक्ति, शरीर, स्थिरता का प्रयोग, युद्ध, औषध, बादल, विष्कंभ, उपाय आदि। अत: आप ध्यानात्मक, संसार-रोग के नाशक होने से औषधात्मक, स्थिरप्रयोगात्मक, संगत्यात्मक आदि अनेक अर्थ हैं। ___ज्ञानसर्वगः= ज्ञानेन केवलज्ञानेन सर्वलोकालोकं जानातीति ज्ञानसर्वगःअपने केवलज्ञान से प्रभु सर्व लोक-अलोक को जानते हैं अत: वे ज्ञान-सर्वग प्रधानं = डुघाञ् धारणपोषणयोरिति तावद्धातुर्वर्तते प्रधीयते एकाग्रतया आत्मनि आत्मा धार्यते इति प्रधानं । परमशुक्लध्यानं तद्योगे भगवानपि प्रधानमित्याविष्टलिंगतयोच्यते - प्रधान - “डुघाञ्" धातु धारण, पोषण अर्थ में है अत: एकाग्रता से अपनी आत्मा में धारण किया जाता है वा आत्मा जिससे धारण करता है वह शुक्ल ध्यान प्रधान कहलाता है और शुक्ल ध्यान आत्मा को छोड़कर बाहर नहीं होता है, आत्मा की ही चारित्र गुण की पर्याय है अतः संयोग से आत्मा ही कहलाती है। शुक्ल ध्यान स्वरूप आत्मा प्रधान कहलाती है। अत; आप प्रधानात्मा हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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