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की जिनसहस्रनाम टीका - १३३ . भगवान जिनेश्वर सोलहकारण भावनारूपी यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों के स्वामी हैं, मोक्षसुखरूप यज्ञ के उद्धारक हैं अत: उनको अध्वर्यु कहना योग्य
अध्वरः = अध्वानं सत्पथं राति ददातीति अध्वरः, अथवा न ध्वरति न कुटिलः भवतीति अध्वरः।
'र' देने अर्थ में है, 'अध्च' मार्ग को कहते हैं, प्रभु अध्वान (सत्पथ) को देते हैं, बताते हैं इसलिए अध्वर हैं। अथवा 'ध्वर' का अर्थ कुटिल होता है अत: जो कुटिल नहीं है, जिसके मन, वचन और काय सरल हैं वह अध्वर कहलाता है।
आनन्दोनन्दनो नंदी वन्द्योऽनिधोऽभिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुरंजयः ॥१२॥
अर्थ : आनंद, नन्दन, नंद, वन्द्य, अनिन्द्य, अभिनन्दन, कामहा, कामद, काम्य, कामधेनु, अरिंजय ये ग्यारह नाम प्रभु के हैं।
टीका-आनंदः =आ समन्तात् नंदतीति आनन्द:= जो चारों तरफ से आनन्द देते हैं वा आनन्द में मगन हैं अत: सार्थक आनन्द नाम के धारक हैं।
नन्दनः = 'टु नदि समृद्धो' नद् अत नंदति कश्चिन्मव्य प्रधातोश्च हेतो इन्, न नंदयतीति नंदनः। नंदि वासि मदि दूषि साधि शोभि वृद्धिभ्यः इनंतेभ्यो संज्ञायां यु प्रत्ययः,' यु वु डा यु स्थाने अन् कारितस्यानामि कारितलोप:
'टु नदि' धातु वृद्धि अर्थ में है, इस धातु के टु और 'इ' का लोप होता है तथा 'इ' का लोप जिसमें होता है उसमें 'न्' का आगमन होता है। अत: 'नन्दयति' बढ़ता है, फलता है, निरंतर स्वकीय सुखमें मग्न है अत: नन्दन कहलाते हैं। तथा नंदि, वासि, मदि, दूषि, साधि, शोभि, वृद्धि, इन धातुओं में 'इ' का लोप होने से 'न' आता है और कारित अर्थ में 'यु' प्रत्यय होकर नन्दयति मन्दयति आदि शब्दों की उत्पत्ति होती है अतः आनन्द देते हैं अत: नन्दन हैं।
नंदः = नं ज्ञानं ददातीति वा नंदः वर्धमानः इत्यर्थः= नं आत्मस्वरूप का ज्ञान प्रभु देते हैं अत: वे नंद है। अथवा वे ज्ञानादिगुणों से समृद्ध हुए हैं।