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* जिनसहस्रनाम टीका- ११४ *
महाप्रातिहार्याथीश: = महच्च प्रातिहार्यं महाप्रातिहार्यं, ऐश्वर्यलक्षणमंडनद्रव्यं तस्याधीश: स्वामी स महाप्रातिहार्याधीशः । तथा चोक्तं
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अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुंदुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां । महान् प्रातिहार्य - महाऐश्वर्य जो अशोकवृक्ष, देवों द्वारा पुष्पवृष्टि करना, दिव्यध्वनि, चौंसठचमर, सुवर्णरत्नजड़ित सिंहासन के ऊपर प्रभु का विराजमान होना, भामण्डल, दुन्दुभि-नगारों की ध्वनि तथा आतपत्र -छत्र ऐसे महाप्रातिहार्यों के अधिपति भगवान् हैं ।
महेश्वर: = महतामिन्द्राणामीश्वर: स्वामी स महेश्वरः अथवा महस्य पूजाया ईश्वर: स्वामी महेश्वरः = प्रभु महान् इन्द्रादिकों के स्वामी हैं । अत: महेश्वर हैं । अथवा मह के पूजन के प्रभु ईश्वर हैं, स्वामी हैं, इसलिए वे महेश्वर
इस प्रकार सूरि श्रीमद् अमरकीर्ति विरचित जिनसहस्रनाम टीका का पंचम अध्याय पूर्ण हुआ ।
षष्ठोऽध्यायः ( महामुन्यादिशतम् ) महामुनिर्महाध्यानी महामौनी महादमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥ १ ॥
अर्थ : = महामुनि, महाध्यानी, महामौनी, महादम, महाक्षम, महाशील, महायज्ञ, महामख ये आठ नाम जिनेन्द्र के हैं।
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महामुनिः = महांश्चासौ मुनिः प्रत्यक्षज्ञानी महामुनिः अर्थात् प्रत्यक्षज्ञानी, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये दो ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । जिनदेव पूर्ण केवलज्ञानी हैं इसलिए वे महामुनि