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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ९० * मुनिः = मन्यते जानाति प्रत्यक्षप्रमाणेन चराचरं जगदिति मुनिः, 'मन्यते किरत उच्च' = प्रत्यक्ष प्रमाणस्वरूप केवलज्ञान से चराचर जगत् को प्रभु जानते हैं, अत: वे मुनि हैं। अथवा - आत्मविद्या को जानते हैं, मानते हैं अत: मुनि परिवृढः = परिसमंतात् वृहति स्म वर्हति स्म सपरिवृढः परिवृढदृढौ प्रभु बलवतोरिति क्ते' निपातनात् न लोप इडभावश्च निपातस्य फलम्। परि - चारों ओर से जो बढ़ गये अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुए ऐसे जिननाथ परिवृढ़ स्वामी हैं। अथवा सर्व जगत् के स्वामी होने से परिवृढ़ हैं। पतिः = पाति रक्षति संसारदुःखादिति पतिः, पाति प्राणिवर्ग विषयकषायेभ्य: आत्मानमिति वा पतिः, पातेर्डति: औणादिकः प्रत्ययोऽयं = जो संसार-दुखों से प्राणियों का रक्षण करते हैं ऐसे जिनराज पति शब्द से वाच्य हैं। अथवा जो प्राणिवर्ग को विषयकषायों से बचाते हैं स्वयं भी बचते हैं, ऐसे जिनदेव पति हैं। 'पाति धातु रक्षा अर्थ में है आणावे प्रकरण में था के आकार का अकार हो जाता है। धीशः = धियां बुद्धीनां ईश: स्वामी स धीशः = धी, बुद्धि, अनन्त केवलज्ञान रूप बुद्धियों के जो स्वामी हैं, धीश हैं। विद्यानिधिः = विद्यायाः स्वसमय परसमय सम्बन्धिन्या: निधिर्निधानं विद्यानिधिः - जैनमत संबंधी विद्यायें तथा अन्यमत विद्यायें इनके प्रभु जिनदेव निधि हैं। अत: वे विद्यानिधि कहे गये हैं। विद्याओं के भण्डार होने से विद्यानिधि साक्षी = साक्षात्यैलोक्यं प्रत्यक्षमस्यास्तीति साक्षी इन् अव्ययानामन्तस्वरादिलोपो लक्षितः - प्रभु को साक्षात् त्रैलोक्य प्रत्यक्ष होता है, जगत् के सारे पदार्थों को साक्षात् जानते हैं अत: साक्षी हैं। विनेता = विनयति स्वधर्ममित्येवंशीलो विनेता = अपने आत्मधर्म को भव्यों को पढ़ाने वाले प्रभु विनेता हैं। वा मार्ग के प्रकाशक होने से विनेता हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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