________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ८९ * रहस्य-मर्म सुष्ठु अतिशय निर्दोषपूर्ण जानते हैं। अतः वे सुनयतत्त्ववेदी हैं। सातों नयों के यथार्थ रहस्य को जानते हैं अत: सुनयतत्त्ववेदी हैं।
एकविद्या महाविद्यो मुनिः परिवृतः पतिः। धीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहतान्तकः॥९॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनो गतिः। त्राता भिषग्वरो वयाँ वरदः घरमः पुमान् ॥१०॥
अर्थ : एकविद्य, महाविद्य, मुनि, परिवृढ़, पति, धीश, विद्यानिधि, साक्षी, विनेता, विहतान्तक, पिता, पितामह, पाता, पवित्र, पावन, गति, बाता, भिषग्वर, वर्य, वरद, परम, पुमान् ये नाम जिनदेव के हैं।
टीका - एकविद्यः = एका अद्वितीया केवलज्ञान-लक्षणोपलक्षिता मतिश्रुतावधिमनःपर्यय-रहिता विद्या यस्येति एकविद्यः ।
उक्तं च पूज्यपादेन भगवता - क्षायिकमनन्तमेकं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वंदेऽहं केवलज्ञानम् ।
एक-अद्वितीय-केवलज्ञान रूप विद्या जिनको प्राप्त हुई है, वे प्रभु एकविद्य हैं। जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है तब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। उस समय मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार भायोपशमिक ज्ञान नहीं होते हैं, क्योंकि, जिनदेव की आत्मा सर्वशुद्धि को प्राप्त हुई है। वहाँ प्रादेशिक अशुद्धि को स्थान ही नहीं है। जिनदेव के द्रव्येन्द्रिय सब हैं, परन्तु भावेन्द्रिय एक भी नहीं है अतः भावेन्द्रिय के सद्भाव में होने वाले मतिज्ञानाविक उनके नहीं होते हैं। भगवान पूज्यपाद केवलज्ञान की इस प्रकार स्तुति करते हैं। केवलज्ञान क्षायिक और एक है, तथा वह अनन्त अविनश्वर है। त्रैकालिक सर्वपदार्थों को युगपत् जानता है। वह अनन्तसुख का नित्य भण्डार है, उसकी मैं वन्दना करता हूँ।
महाविद्यः = महती केवलज्ञानलक्षणा विद्या यस्येति स महाविद्यः = केवलज्ञान रूपी बड़ी विद्या जिनको प्राप्त हुई है ऐसे जिनदेव महाविद्य कहे जाते