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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सेढीए दट्ठव्वं जाव गुणसेढीसीसयं ति । दिस्समाणम्हि पुण जोइज्जमाणे सुहुमसांपराइयगुणसेढीए सह अण्णारिसी सेढिपरूवणा होइ । तं जहा–उदये थोवं दीसइ, तत्तो असंखेज्जगुणं जाव आवलियमेत्तकालो ति, तदो असंखेज्जगुणहीणं जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयेण कदगुणसेढीसीसयेत्ति, पुणो उवरिमएगट्ठिदिम्हि वि असंखेजगुणहीणं, तत्तो असंखेज्जगुणं भवदि जाव पढमसमयाणियट्टिणा कदतक्कालियगुणसेढिसीसएत्ति। 5 १३५. संपहि विदियादिसमएसु वि असंखेज्जगुणहीणं पदेसग्गमोकड्डियूणावहिदायामेण गुणसेढिं कुणदि। तत्थ वि दिज्जमाणदिस्समाणाणं सेढिपरूवणा जाणिय यव्वा जाव लोभवेदगद्धाचरिमसमओ ति । उदयो पुण अणियट्टिपढमसमए थोवो, से काले असंखेज्जगुणो इच्चादिदिस्समाणभंगाणुसारेण णेदव्यो जाव लोभवेदगद्धाचरिमसमयो त्ति । संपहि एत्थेव द्विदिबंधपमाणावहारणद्वमुत्तरसुत्तमोइण्णं____ * पढमसमयवावरसांपराइस्स लोभसंजलणस्स हिदिवंधो अंतोमुहुत्तो, तिण्हं घाविकम्माणं द्विविधादो अहोरत्ताणि वेसूणाणि, वेदणीयणामागोदाणं द्विविधो चत्तारि वस्साणि देसूणाणि । १३६. चडमाणवादरसांपराइयचरिमट्ठिदिबंधादो दुगुणमेत्तो द्विदिवंधो एत्थ दिया जानेवाला द्रव्य गुणश्रेणि शीर्षके प्राप्त होने तक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे होता है ऐसा जानना चाहिए। परन्तु दृश्यमान द्रव्यका विचार करनेपर उसकी सूक्ष्मसाम्परायसम्बन्धी गुणश्रेणिके साथ अन्य प्रकारकी श्रेणिप्ररूपणा होती है। वह जैसे-उदयमें स्तोक दिखलाई देता है। उसके बाद एक आवलि काल तक असंख्यातगुणा दिखलाई देता है । उसके बाद अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके द्वारा की गई गुणश्रेणिके शीर्ष प्राप्त होने तक असंख्यातगुणा हीन दिखलाई देता है। पुनः उपरिम एक स्थितिमें भी असंख्यातगुणा हीन दिखलाई देता है। उसके बाद प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवके द्वारा की गई तात्कालिक गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणा दिखलाई देता है। 5 १३५. अब द्वितीयादि समयोंमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणिको करता है। वहाँ भी दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा लोभवेदककालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जानकर कहनी चाहिये। उदय तो अनिवत्तिकरणके प्रथम समयमें स्तोक होता है. तदनन्तर समयमें असंख्यातगणा होता है इत्यादि कथन दृश्यमान भंगके समान लोभवेदककालके अन्तिम समय तक कथन करते जाना चाहिये। अब यहीं पर स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * बादरसाम्परायिक जीवके प्रथम समयमें लोभसंज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त होता है, तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध कुछ कम दो दिन-रातप्रमाण होता है तथा वेदनीय नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध कुछ कम चार वर्षप्रमाण होता है। $ १३६. चढ़नेवाले बादर साम्परायिकके अन्तिम स्थितिबन्धसे यहाँ दुगुना स्थितिबन्ध हो
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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