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________________ उवसामणाक्खएण पडिवदमाणपरूवणा ५७ * ताहे चेव फड्डयगदं लोभं वेदेदि । $ १३२. कुदो १ बादरसांपराइयम्हि सुहुमकिट्टीणमुदयासंभवादो । * किट्टीओ सव्वाओ णट्ठाओ । $ १३३. किं कारणं ९ तासिं सव्वासिमेगसमएणेव पयदभावेण परिणामदंसणादो | * णवरि जाओ उदयावलियन्भंतराओ ताओ त्थिवुक्कसंकमेण फडएस विपच्चिहिंति । $ १३४. कुदो १ फडएसु वेदिज्जमाणेसु उदयावलियपविट्ठाणं किडीणं पि तभावपरिणामेणुदये विवागं मोचूण पयारंतरसंभवाणुवलंभादो । संपहि बादरलोभं वेदेमाणो फड्डयगदं दव्वमोकड्डियूण संपहियलोभवेदगकालादो आवलियमेत्तेण विसेसाहियं गुणसेढिणिक्खेवं उदयादि णिक्खिवदि । सरिसो च तिविहस्स लोहस्स गुणसेढिणिक्खेवो, णवरि दोन्हं लोभाणं उदयावलियाए णत्थि गुणसेढि - णिक्खेवो । संपहियलोभवेदगकालो किंप्रमाणो चि भणिदे परिवदमाणयस्स जो लोभवेदकालो तं तिणिभागे कायूण तत्थ सादिरेयवेत्तिभागमेत्तो । एवमेदेणायामेण गुणसेढिविण्णासं कुणमाणस्स अणियद्विपढमसमए दिज्जमाणदव्वमसंखेज्जगुणाए * उसी समय स्पर्धकगत लोभका वेदन करता है । $ १३२. क्योंकि बादरसाम्परायमें सूक्ष्म कृष्टियों का उदय असम्भव है । * उस समय कृष्टियाँ सब नष्ट हो जाती हैं । $ १३३. क्योंकि उन सबका एक समय द्वारा ही प्रकृत स्पर्धक रूप से परिणमन देखा जाता है । * इतनी विशेषता है कि जो कृष्टियाँ उदयावलिमें प्रविष्ट हैं वे स्तिवुक संक्रमण द्वारा स्पर्धकरूपसे विपाकको प्राप्त होती हैं । $ १३४. क्योंकि स्पर्धकोंके वेदते समय उदयावलिमें प्रविष्ट हुई कृष्टियों का भी स्पर्धकरूपसे परिणमन होकर स्पर्धकरूप से विपाकको छोड़कर अन्य कोई प्रकार सम्भव है इसकी उपलब्धि नहीं होती । उस समय बादर लोभको वेदता हुआ स्पर्धकगत द्रव्यका अपकर्षण कर इस समय जो लोभका वेदक काल है उससे आवलिमात्र विशेष अधिक कर उदयादिसे लेकर गुणश्रेणि निक्षेप करता है । तीनों लोभोंका गुणश्रेणिनिक्षेप सदृश होता है । इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन दो लोभोंका उदयावलिमें गुणश्रेणिनिक्षेप नहीं होता। शंका- साम्प्रतिक लोभवेदक कालका प्रमाण कितना है ? समाधान — गिरनेवाले का जो लोभवेदक काल है उसके तीन भाग करके उनमें से साधिक दो त्रिभाग प्रमाण है । इस प्रकार इस आयामबाली गुणश्रेणिकी रचना करने वालेके अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें ८
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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