SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उवसामणाक्खण पडिवदमाणपरूवणा जादो त सुतत्थसंगहो । एवमेदेण सुत्तेण पढमसमयबादर सांपराइएण ाढ तट्ठिदिबंधपमाणावहारणं संपहि विदियट्ठिदिबंधाणं पमाणावहारणट्ठमुत्तरमुत्तमोइण्णं * एदम्हि पुण्णे द्विदिबंधे जो अण्णो वेदणीयणामागोदाणं द्विदिबंधो सो संखेज्जवस्ससहस्साणि, तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्तपुधत्तिगो, लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो पुव्वबंधादो विसेसाहिओं । $ १३७. बादरसांपराइयस्स णामागोदवेदणीयाणं विदियो हिदिबंधो पढमद्विदिबंधादो संखेज्जगुणवडीए पयट्टमाणो संखेज्जवस्ससहस्सपमाणो जादो, तिन्हं घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो तप्पा ओग्गवड्डीए वहुमाणो अहोरत्तपुघत्तिओ जादो, लोहसंजलणस्स विट्ठिदिबंधोपुव्विल्लट्ठिदिबंधादो विसेसाहियवडीए वड्डियूण अंतोमुहुत्तपमाणो जादो ति एसो एत्थ सुत्तत्थविणिच्छयो । एवमेदेण विहाणेण बादरलोभवेदगद्धाए संखेज्जेसु द्विदिबंधवियप्पे गदेसु तदो लोभवेदगद्धा विदियतिभागस्स संखेज्जदिभागं संपत्तो । पुण तहि उसे पयट्टमाणस्स जो हिदिबंधगओ विसेसो तदुप्पायणद्वमुत्तरो सुत्तणिबंधो * लोभवेदगद्धाए विदियस्स तिभागस्स संखेज्जदिभागं गंतूण मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधो मुहुत्तपुघत्तं, णामागोदवेदणीयाणं द्विदिबंधो संखे जाता है यह सूत्रार्थका समुच्चय अर्थ है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा बादरसाम्परायिक जीव प्रथम समय में जितना स्थितिबन्ध करता है उसकी अवधारणा करके अब द्वितीय स्थितिबन्धोंके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * इस स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मोंका जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका दिनरात पृथक्त्व प्रमाण स्थितिबन्ध होता है तथा लोमसंज्वलनका पूर्वके बन्धसे विशेष अधिक स्थितिबन्ध होता है । $ १३७. बादरसाम्परायिक जीवके नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका दूसरा स्थितिबन्ध प्रथम स्थितिबन्धकी अपेक्षा संख्यातगुणवृद्धि रूपसे प्रवृत्त होकर संख्यात हजार वर्ष प्रमाण हो जाता है, तीन घाति कर्मोंका स्थितिबन्ध तत्प्रायोग्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ दिन-रात पृथक्त्व प्रमाण हो जाता है तथा लोभ संज्वलनका भी स्थितिबन्ध पहलेके स्थितिबन्धसे विशेष अधिक वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो जाता है यह यहाँ सूत्रार्थका निर्णय है । इस प्रकार इस विधिसे बादरलोभवेदकके कालके भीतर संख्यात स्थितिबन्धके भेदोंके जाने पर तब लोभवेदक कालके द्वितीय त्रिभागका संख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । पुनः उस स्थान पर रहनेवाले जीवके जो स्थितिबन्धगत विशेष होता है उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध आया है - * लोभवेदककालका द्वितीय त्रिभाग सम्बन्धी असंख्यातवाँ भाग जाकर मोहनीय
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy