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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जाणि वस्ससहस्साजि, तिण्हं घाविकम्माणं ठिविबंधो अहोरत्तपुधत्तियादो हिदिबंधादो वस्ससहस्तपुत्तिगो हिदिषंधो जादो । $ १३८. चडमाणवादासांपराइयस्स लोभवेदगद्धाविदियतिभागस्स संखेज्जेसु भागेसु गदेसु जम्हि उद्दे से मुहत्तपुधत्तिओ लोहसंजलणस्स हिदिबंधो विणहो तमुद्देसं थोवंतरेण ण पावदि ति एदम्हि अवत्यंतरे पयट्टमाणस्स ओदरमाणबादरसांपराइयस्स एवंविहे मोहादिकम्माणं द्विदिबंधो संवुत्तो ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ। एत्तो पाए मोहणीयवज्जाणं कम्माणं संखेज्जगुणवड्डीए मोहणीयस्स च विसेसाहियवड्डीए द्विदिबंधसहस्साणि जहाकममणुपालेतस्स लोभवेदगद्धा कमेण समप्पदि त्ति जाणावण?मुत्तरसुत्तं । * एवं ठिदिवंधसहस्सेसु गदेसु लोभवेदगद्धा पुण्णा । $ १३९. सुगमं । णवरि चडमाणस्स बादरलोभवेदगद्धा विसेसहीणा दट्ठव्वा, सबासिमद्धाणमेदेणेव चडमाणोदरमाणेसु पवुत्तिअब्भुगमादो। एवं लोभवेदगद्धाए चरिमसमयम्हि वट्टमाणस्स ताहे पढमसमयबादरसांपराइएण णिक्खित्तगुणसेढीए आवलियमेत्ताओ गोवुच्छाओ अवसिट्ठाओ अत्थि । किं कारणं ? पढमसमयबादरसांपराइओ गुणसेढिं कुणमाणो तिविहस्स लोभस्स लोमवेदगकालादो आवलियब्भहियं कर्मका स्थितिबन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है, नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका स्थितिवन्ध दिनरात पृथक्त्वप्रमाण स्थितिबन्धसे एक हजार वर्षपृथक्त्वप्रमाण हो जाता है। 5 १३८. चढ़नेवाले बादरसाम्परायिकके लोभवेदककालके द्वितीय त्रिभागके संख्यात भागोंके जाने पर जिस स्थान पर लोभसंज्वलनका मुहूर्तपृथकत्वप्रमाण स्थितिबन्ध विनष्ट हुआ उस स्थानको स्तोक अन्तर रहनेसे अभी प्राप्त नहीं किया है ऐसी दूसरी अवस्थामें रहते हुए उतरनेवाले बादरसाम्परायिक जीवके मोहनीय आदि कर्मोका इसप्रकार स्थितिबन्ध हो गया यह यहाँ सूत्रार्थ का समुच्चय है। इससे आगे मोहनीयकर्मके सिवाय शेष कर्मोके संख्यातगुणी वृद्धिरूपसे और मोहनीय कर्मके विशेष अधिक वृद्धिरूपसे हजारों स्थितिबन्धोंके क्रमसे प्राप्त होनेवाले जीवका लोभवेदक काल क्रमसे समाप्त होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इस प्रकार हजारों स्थितिबन्धोंके जानेपर लोमवेदककाल समाप्त होता है । ६१३९. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि चढ़नेवालेका लोभवेदक काल विशेष हीन जानना चाहिये, क्योंकि चढ़नेवाले और उतरनेवाले जीवोंमें सभी कालोंकी इसी विधिसे प्रवृत्ति स्वीकार की गई है। इसप्रकार लोभवेदककालके अन्तिम समयमें विद्यमान हुए जीवके तब प्रथम समयवर्ती बादरसाम्परायिक जीवके द्वारा की गई गुणश्रेणिकी आवलिमात्र गोपुच्छाएं अवशिष्ट रहती हैं, क्योंकि प्रथम समयवर्ती बादरसाम्परायिक जीव गुणश्रेणिको करता हुआ
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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